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________________ करता है। किन्तु, यह अभिव्यक्ति कहाँ, कब और कैसे हो, इसका सम्यक् रूप से ध्यान रखना आवश्यक होता है। एक गलत अभिव्यक्ति जहाँ व्यक्ति और समाज में विसंवाद उत्पन्न कर देती है, वहीं एक सम्यक् अभिव्यक्ति जीवन में सुसंवाद उत्पन्न कर जीवन को सरस बना देती है। व्यक्ति का परिवार और समाज से जुड़ना और टूटना – दोनों ही उसकी अभिव्यक्ति पर निर्भर करते हैं। अतः जीवन में अभिव्यक्ति (वाणी) का सम्यक् प्रस्तुतीकरण कैसे हो, इसका प्रशिक्षण भी आवश्यक है। इस प्रकार, जीवन-प्रबन्धन के अन्तर्गत सम्यक् अभिव्यक्ति-प्रबन्धन भी आवश्यक है। आज मनुष्य के लिए पर्यावरण-प्रबन्धन की भी एक महती आवश्यकता है, क्योंकि प्रदूषित पर्यावरण से न केवल मनुष्य-जीवन को खतरा है, अपितु उसके साथ सम्पूर्ण प्राणीय सृष्टि के अस्तित्व का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है। यदि जल और वायु प्रदूषित होते हैं, तो इससे वनस्पति जगत् भी समाप्त हो जाएगा और वनस्पति जगत् के अभाव में जन्तु जगत् भी जीवित नहीं रहेगा और जन्तु जगत् के अभाव में भले ही जगत् की जड़ वस्तुएँ रहें, किन्तु उनके उपयोगकर्ता के अभाव में उनका कोई मूल्य ही नहीं रह पायेगा। इस प्रकार, पर्यावरण-प्रबन्धन का तत्त्व भी जीवन-प्रबन्धन के साथ जुड़ा हुआ है। चाहे जीवन-प्रबन्धन शब्द आधुनिक लगता हो, किन्तु यह तो एक सम्यक् जीवनशैली का विकास है। यह हमें यही सिखाता है कि वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में कैसे जीना चाहिए? यह हमारे यथार्थ जीवन को आदर्श जीवन बनाने की एक कला है। वस्तुतः, व्यक्ति एकाकी प्राणी नहीं है। मनुष्य की एक परिभाषा उसे सामाजिक प्राणी के रूप में भी देखती है – Man is a social animal | यदि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, तो उसे समाज में कैसे जीवन जीना चाहिए, यह भी जानना होगा। साथ ही उसे समाज में पारस्परिक व्यवहार का सम्यक् तरीका भी सीखना होगा। इसे ही जैन-दर्शन में सम्यक् चारित्र के एक विभाग के रूप में जाना जाता है। यद्यपि समाज एक बृहद् इकाई है, इसके केन्द्र में मनुष्य है, फिर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि एक सभ्य मनुष्य का निर्माण समाज की ही देन है। वस्तुतः मनुष्य ने पारस्परिक व्यवहार का ढंग या दूसरे शब्दों में कहें तो समाज में जीने का ढंग समाज से ही सीखा है। व्यक्ति और समाज एक-दूसरे पर आधारित हैं, वे परस्पर सापेक्ष हैं। व्यक्ति के बिना समाज और समाज के बिना व्यक्ति का कोई अर्थ नहीं है। सामाजिक जीवनशैली मानव समाज की एक विशेषता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि समाज मात्र व्यक्तियों का समूह या भीड़ नहीं है, उसका अपना एक तंत्र या व्यवस्था है। यह सामाजिक व्यवस्था भी जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति का एक साधन मात्र है। केवल स्वहित को साधना या स्वार्थ पूर्ति करना - यह सभ्य समाज में मनुष्य का जीवन-लक्ष्य नहीं है। समाज स्वार्थ या स्वहित साधने के मूल्य पर खड़ा नहीं होता है, उसका आधार त्याग और समप्रण के मूल्य हैं। स्वार्थी व्यक्तियों का समूह समाज नहीं होता है। दूसरे शब्दों में, चोरों, डाकुओं या लुटेरों का समूह समाज नहीं होता है। समाज के निर्माण हेतु स्वार्थ का त्याग आवश्यक होता है। उसका आधार सहयोग एवं मैत्री की भावनाएँ हैं। ये आदर्श जीवन-मूल्य भी आज हमें शिक्षा के माध्यम से می هی هی هی هی هی هی هی هی هی هی هی هی هی هی هی هی هی هی می می شی شی شی شی شی شی شی شی شی شی می می XX Jain Education International जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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