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इन्हें हम पोषण और सुरक्षा के प्रयत्न कह सकते हैं। शरीर का पोषण आवश्यक है, क्योंकि यदि शरीर और उसके अंगों का सम्यक् ढंग से पोषण नहीं होगा, तो शरीर अस्वस्थ हो जाएगा और अस्वस्थ शरीर के माध्यम से जीवन को जिस प्रकार जीना चाहिए, हम नहीं जी पायेंगे। इसके लिए हमें पूरी तरह से स्वास्थ्य-विज्ञान और आहार-विज्ञान के नियमों को समझकर, उनका पालन करना होगा। वे सारे तत्त्व जो शारीरिक रूग्णता और मानसिक तनाव को जन्म देते हैं. उनका वर्जन करना होगा। हमें सम्यक् आहार के माध्यम से शरीर का पोषण करना होगा, तब ही हम शरीर को स्वस्थ रख पायेंगे। शरीर के सम्बन्ध में दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमारी जीवनयापन की शैली ऐसी हो, जिसमें शरीर की सुरक्षा की भी सम्यक् व्यवस्था हो। अति साहस और अति भोग - दोनों ही शारीरिक सुरक्षा में बाधक होते हैं। वासना के अधीन होकर अधिक भोग और शरीर की क्षमता का ध्यान नहीं रखते हुए कार्य करना - दोनों ही शरीर-प्रबन्धन में बाधक होते हैं। शरीर जीवन जीने का एक सम्यक् साधन है, उसका उपयोग भी सम्यक् तरीके से होना चाहिए, शरीर-प्रबन्धन हमें यही सिखाता है। यहाँ भी वासना
और विवेक का सम्यक् समायोजन आवश्यक होता है, अतः व्यक्ति को यह सीखना भी अनिवार्य है कि वह अपने शरीर और उसकी शक्तियों का विनियोग सम्यक् प्रकार से करे।
मनुष्य एक मनोदैहिक रचना है, अतः उसे दैहिक और मानसिक – दोनों आधारों पर सम्यक् रूप से जीवन जीना होगा। जीवन-प्रबन्धन का उद्देश्य यह भी है कि वह न केवल स्वस्थ शरीर के माध्यम से जी सके, अपितु स्वस्थ मन से भी जी सके। आज जो वैश्विक समस्याएँ हैं, उनका एक प्रमुख कारण है - मानसिक तनाव, जबकि सम्यक् जीवन के लिए स्वस्थ मानसिकता आवश्यक है। यदि व्यक्ति तनाव और तज्जन्य मानसिक विकारों का सम्यक् प्रबन्धन करने में सफल नहीं होता है, तो भी वह अपने जीवन को सही ढंग से नहीं जी पाता है। मानसिक-विकार और उनसे उत्पन्न होने वाले तनाव क्यों, कब और किस परिस्थिति में उत्पन्न होते हैं, यह समझना भी आवश्यक है और उनसे मुक्त रहना भी आवश्यक है। यह सत्य है कि तनाव के कारण आन्तरिक और बाह्य – दोनों हो सकते हैं, फिर भी तनाव से मक्त होकर समता और शान्ति पर्ण जीवन कैसे जिया जीवन-प्रबन्धन के माध्यम से ही जाना जा सकता है। अतः, जीवन में तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन भी जीवन-प्रबन्धन का एक महत्त्वपूर्ण आधार है।
ऊपर हमने जीवन-प्रबन्धन के जो उपाय बताए, उन सबका सम्बन्ध मूलतः व्यक्ति के वैयक्तिक जीवन से है, किन्तु कुछ समाजगत तथ्य भी हैं, जो हमारे जीवन-प्रबन्धन में साधक या बाधक होते हैं। इनमें वाणी प्रबन्धन, पर्यावरण प्रबन्धन, अर्थ प्रबन्धन, समाज प्रबन्धन और धार्मिक-व्यवहार प्रबन्धन प्रमुख हैं। ये तथ्य हमारे परिवेश से जुड़े हुए हैं और समाज के अन्य घटकों से हमारे सम्बन्ध को बनाते हैं।
संसार में जितने भी प्राणी हैं, उन सबमें मनुष्य की यह विशेषता है कि उसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए भाषा या वाणी भी मिली हुई है। वाणी का सम्यक् नियोजन न होने पर भी जीवन में अनेक विसंगतियाँ आ जाती हैं। वाणी एक ऐसा माध्यम है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने भावों की अभिव्यक्ति
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