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________________ To. - - - - ناشی می می می می می می می می میعی आवश्यकताओं की पूर्ति तक सीमित नहीं है। जैन-दर्शन की स्पष्ट मान्यता है कि आहार, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृत्ति सामान्य रूप से सभी प्राणियों में पाई जाती है, किन्तु मनुष्य मात्र वासनाओं का पिण्ड नहीं है, उसमें विवेक नामक तत्त्व भी है। अतः वह यह विचार कर सकता है कि उसे क्या खाना है, कब खाना है और कैसे खाना है, जो उसके शरीर, स्वास्थ्य और मनोभाव को सम्यक् बनाए रख सके। यह सत्य है कि जीवन में आहार आवश्यक है, किन्तु आहार कैसा हो, कब खाया जाए और कितनी मात्रा में खाया जाए - यह सब निर्णय तो मनुष्य को करना होता है। इसी प्रकार, जीवन की अन्य आवश्यकताएँ, जैसे – निद्रा, सुरक्षा, कामवासना की संतुष्टि आदि भी जीवन से जुड़े अनिवार्य तथ्य हैं, फिर भी इनके सम्बन्ध में एक विवेकशील पद्धति हो सकती है। उसे ही जीवन-प्रबन्धन के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार, प्रबन्धन मात्र एक व्यवस्था नहीं है, अपितु आदर्शोन्मुख जीवनशैली है। इन आदर्शों का बोध शिक्षा के माध्यम से ही सम्भव है। अतः सम्यक् जीवन-प्रबन्धन के लिए सम्यक् शिक्षा व्यवस्था का होना आवश्यक है। प्राणीय जीवन का प्रारम्भ भी किसी कालविशेष में होता है और अन्त भी किसी कालविशेष में होता है, जिन्हें हम जन्म और मृत्यु के नाम से जानते हैं। प्रबन्धन की दृष्टि से, न तो जन्म हमारे हाथ में है और न मृत्यु। किसी उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है - लाइ हयात आ गये, कज़ा ले चली चले-चले। न अपनी खुशी आये, न अपनी खुशी गये ।। जन्म और मृत्यु हमारे हाथ में नहीं हैं, फिर भी जन्म और मृत्यु के दो छोरों के बीच जीवन की धारा सम्यक् रूप से बहती रहती है। यह जीवनधारा ही मनुष्य के अधिकार क्षेत्र में है और इसका सम्यक् नियोजन जीवन-प्रबन्धन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। यह कार्य समय-प्रबन्धन के माध्यम से ही सम्भव है। यह सही है कि न भूतकाल हमारे अधिकार क्षेत्र में होता है और न भविष्य। जीवन तो हमेशा वर्तमान में ही जिया जाता है। इसलिए भारतीय चिन्तकों की यह मान्यता रही है कि समय का प्रबन्धन केवल और केवल वर्तमान में ही सम्भव है। अतः, वर्तमान के क्रियाकलापों को सार्थक बनाने के प्रयत्न को ही सम्यक् जीवन-प्रबन्धन कहा जा सकता है। भूत गुजर चुका है, वह अब हमारे हाथ में नहीं है, भविष्य कैसा होगा, यह भी पूर्णतया हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं है। भूतकाल का रोना रोना और भविष्य के सुनहले सपने संजोना, यह मनुष्य के लिए उचित नहीं है। उसके समग्र पुरूषार्थ की सफलता इसी में है कि उसे जो अवसर उपलब्ध हुआ है, उसका सम्यक् ढंग से उपयोग करे, यही समय-प्रबन्धन है। मनुष्य जो भी करता है, वह सब उसके मन, वाणी और शरीर के माध्यम से ही सम्भव होता है। यह कहा जा सकता है कि हमारे समग्र आचार और व्यवहार के संचालन के लिए शरीर एक सशक्त माध्यम है। अतः, शरीर को सही दिशा में नियोजित करना आवश्यक है और इसे ही शरीर-प्रबन्धन कहते हैं। इसमें दो तत्त्व प्रमुख होते हैं - पहला स्वास्थ्य का और दूसरा शारीरिक अंगों का संरक्षण। XVI11 Jain Education International जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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