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उत्तराध्ययनसूत्र में प्रमादी प्राणी पर कटाक्ष करते हुए कहा गया है कि जिसकी मृत्यु के साथ मित्रता हो, जो उससे कहीं भाग कर बच सकता हो अथवा जो यह जानता हो कि वह कभी मरेगा ही नहीं, वही कल पर भरोसा कर सकता है।14 इसी प्रकार करुणा दृष्टि से कहा गया है – “जो कर्त्तव्य कल करना है, वह आज ही कर लेना अच्छा है। मृत्यु अत्यन्त निर्दयी है, यह कब आ जाए, मालूम नहीं।'119 पुनश्च आलस्य घर न कर जाए, इसके लिए सावचेत करते हुए कहते हैं – 'आलसी की संगति छोड़ देनी चाहिए।116 जिसे अल्प जीवन में अधिकतम लाभ प्राप्त करना है, उसे आलस्य रूपी महारोग को दूर करना आवश्यक है। याद रखने योग्य कहावत है -
One today worth two tomorrows
(आज नहीं किया, तो कल दुगुना समय लगेगा।) 3) अस्वस्थता (Ill-health) - अस्वस्थ व्यक्ति किसी भी कार्य को करने में अनावश्यक समय खर्च करता है। अस्वस्थता के कारण से उसके सभी क्रियाकलाप बार-बार अवरुद्ध होते हैं। उसका उठना, बैठना, चलना, खाना, पीना, सोचना, विचारना, सोना आदि सभी प्रभावित होते हैं।
जैनदर्शन में स्वस्थ शरीर के लिए आहार-विवेक को अतिमहत्त्वपूर्ण माना गया है। निशीथभाष्य में कहा भी गया है – 'मोक्ष के साधन ज्ञानादि हैं, ज्ञानादि का साधन देह है, देह का साधन आहार है, अतः साधक को समयानुकूल आहार करना चाहिए।17 देश, काल एवं परिस्थिति के आधार पर आहार की शुद्धता, पौष्टिकता, सन्तुलितता, भक्ष्यता, बारम्बारता आदि का विचार करना चाहिए और इसके बाद ही आहार ग्रहण करना चाहिए। स्पष्ट कहा गया है कि व्यक्ति को निश्चित समय पर सन्तोष के साथ भोजन करना चाहिए (काले भोक्ता च साम्यतः)। किन्तु यदि अजीर्णादि हो जाए, तो उनकी बाधा दूर होने पर ही भोजन करना चाहिए (अजीर्णे भोजन-त्यागी)।118 साथ ही रात्रिभोजन का सर्वथा त्याग करना चाहिए। ज्ञातव्य है कि जैनाचार्यों के आहार सम्बन्धी सभी निर्देश केवल आध्यात्मिक दृष्टि से ही नहीं, अपितु शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी आचरणीय है। इनका पालन कर व्यक्ति स्वस्थ रहकर अपने कार्यों को समय पर सम्पादित कर सकता है और समय की बर्बादी से बच सकता है। (विशेष : देखें अध्याय 5) 4) आदतें (Habits) – कई बार व्यक्ति अकारण ही अपनी गलत आदतों से अपने अमूल्य समय को नष्ट करता रहता है, जिन्हें जैनदर्शन में 'अनर्थ-दण्ड' क्रियाएँ कहा जाता है। 'अनर्थ-दण्ड' कहने का प्रयोजन यह है कि ये क्रियाएँ न केवल निरर्थक होती हैं, बल्कि वर्तमान अथवा भविष्य में हमें नुकसानदायी (दण्डरूप) सिद्ध होती हैं।119 जैनकथानकों में इलायची कुमार का उल्लेख मिलता है, जो गृहस्थावस्था में सेठ के पुत्र होने के बावजूद अपनी विषय-सुख की आसक्तिवशात् रूपाली नटकन्या के मोहपाश में फँस गए और अपना काफी समय बर्बाद कर दिया।120 कहा भी गया है -
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अध्याय 4: समय-प्रबन्धन
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