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________________ 4.6.2 सही लक्ष्यों एवं नीतियों का निर्माण करना (Right Goals & Policies) समय-प्रबन्धन करने हेतु मूल उद्देश्य-निर्धारण के पश्चात् सबसे बड़ा कार्य है - 'जीवन के विविध लक्ष्यों (Goals) का निर्धारण करना'। यही समय-प्रबन्धन की सफलता का द्वार है। जो बिना लक्ष्य के चलेगा, वह कहीं नहीं पहुँच सकेगा। प्रस्तुत प्रसंग में उद्देश्य-निर्धारण और लक्ष्य-निर्धारण में अन्तर करना आवश्यक है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार, उद्देश्य व्यापक होता है और लक्ष्य सीमित होता है। व्यावहारिक क्षेत्र में 'धनार्जन' उद्देश्य हो सकता है और उसके लिए उत्पादन की मात्रा का निर्धारण लक्ष्य हो सकता है। साधना के क्षेत्र में उद्देश्य मोक्ष-प्राप्ति हो सकता है एवं ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की साधना की मात्रा लक्ष्य हो सकती है। यहाँ लक्ष्य शब्द 'Goal' का सूचक है।56 उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है, 'जैसे धागे में पिरोई हुई सुई गिर जाने पर भी गुम नहीं होती है, वैसे ही ज्ञानरूपी धागे से युक्त आत्मा न संसार में भटकती है और न ही विनाश को प्राप्त होती है। 57 आशय यह है कि जिसने सही विचारपूर्वक समीचीन लक्ष्य का निर्धारण कर लिया है, वह भटक नहीं सकता। समय-प्रबन्धन की सफलता के लिए हमारी योजनाओं में निम्न मानदण्ड होना आवश्यक हैं - ★ विविध लक्ष्यों का सम्यक् समायोजन - समय-प्रबन्धन के अनेक छोटे-छोटे लक्ष्य (Goals) होते हैं, जैसे - शिक्षा-प्रबन्धन, वाणी-प्रबन्धन, शरीर-प्रबन्धन आदि। इन सब जीवन-लक्ष्यों का सम्यक् समायोजन करना, समय-प्रबन्धन की समग्रता का आधार होगा। हमें इस प्रकार से इन लक्ष्यों की प्राप्ति की योजना बनानी होगी कि इन सभी की समयोचित प्राप्ति हो सके, ऐसा न हो कि किसी पक्षविशेष में समय का अतिरिक्त निवेश हो और किसी की उपेक्षा हो जाए। ★ उच्च-चरित्र की स्वीकृति - इतिहास में ऐसे अनेक महापुरूष हुए हैं, जिन्होंने उच्च-चरित्र का परिपालन करते हुए विकट परिस्थितियों और अल्प जीवन में विशाल उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं और जो समय-प्रबन्धन सीखने के लिए एक आदर्श है। उदाहरण - मणिधारी दादाजिनचंद्रसूरि (26 वर्ष), श्रीमद्राजचंद्र (33 वर्ष), स्वामी विवेकानन्द (39 वर्ष), रानी लक्ष्मीबाई (22 वर्ष), भगतसिंह (24 वर्ष), चंद्रशेखर आजाद (26 वर्ष), सुभाषचंद्र बोस (48 वर्ष) इत्यादि।58 ★ दीर्घकालीन, मध्यकालीन और अल्पकालीन लक्ष्यों का समन्वय - हम सिर्फ अल्पकालीन और तात्कालिक लक्ष्यों में उलझ न जाएँ। जैन-परम्परा एवं आधुनिक–परम्परा की जीवन-दृष्टि में मूलभूत अन्तर यही है कि आधुनिक-परम्परा केवल वर्तमान जीवन के सापेक्ष ही योजना बनाती है, जबकि जैन-परम्परा वर्तमान के साथ-साथ भावी-जीवन (पारलौकिक जीवन) के सापेक्ष भी उचित योजना प्रदान करती है। __ यह जैनदृष्टि हमारे अल्पकालीन एवं मध्यकालीन योजनाओं को इस प्रकार संचालित करती है कि ये दोनों हमारी दीर्घकालीन योजनाओं (ऐहलौकिक एवं पारलौकिक) की पूर्ति में सहयोगी बन सके। जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 196 14 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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