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________________ सकता है - जीवन के तीन पक्ष होते हैं - सामाजिक, शारीरिक एवं मानसिक। सामान्यतया व्यक्ति समाज, परिवार एवं कुटुम्ब आदि के बीच रहता है, यह उसका 'सामाजिक पक्ष' है। इसी प्रकार, शरीर, वाणी आदि के आधार पर जीवन जीना, यह उसका 'शारीरिक पक्ष' है। इन सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यक्ति सदैव प्रयत्न करता रहता है और इनके संरक्षण एवं विकास के लिए भी तत्पर रहता है। इनके लिए ही वह व्यावहारिक-शिक्षा प्राप्त करता है, परन्तु नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा से वंचित रह जाता है, जिसके दुष्प्रभाव भी व्यावहारिक जीवन में दिखते रहते हैं। इसका कारण यह है कि वह भूल ही जाता है कि एक तीसरा पहलू 'मानसिक पक्ष' है, जिसके साथ उसे जीना होता है। इस मानसिक पक्ष में अनेक इच्छाएँ, वासनाएँ, कामनाएँ, संवेग, आवेग आदि होते हैं, जो मन रूपी समुद्र में तरंगों के समान निरन्तर उछालें मारते रहते हैं। कभी-कभी तो वैचारिक तूफान भी उत्पन्न हो जाता है, जिससे न केवल अशान्ति पैदा होती है, अपितु अंतरंग व्यक्तित्व का पतन भी हो जाता है। इस मानसिक पक्ष की विकृत्तियों का प्रभाव कभी-कभी बाह्य व्यवहार में भी दिखाई देता है। पसीना आना, रोना-बिलखना, तीक्ष्णवाणी का प्रयोग होना, चेहरा उतर जाना, मनोदैहिक रोगों की उत्पत्ति होना आदि लक्षण दिखना एक आम बात है। जैनाचार्यों ने इन इच्छाओं आदि विपरीत मनोवृत्तियों का मूल कारण ‘संज्ञाओं' को माना है, जिन्हें आधुनिक मनोविज्ञान में मूलप्रवृत्ति (Basic Instincts) कहा गया है। यद्यपि ये संज्ञाएँ प्रत्यक्षतौर पर दिखाई नहीं देती, तथापि इच्छाओं आदि के रूप में अभिव्यक्त होती रहती हैं, जिनसे व्यक्ति दुःखी एवं सन्तप्त होता रहता है। अतः आध्यात्मिक शिक्षा नितान्त आवश्यक है, जो व्यक्ति के मानसिक पक्ष को परिष्कृत कर जीवन को आनन्द एवं प्रसन्नता से सराबोर कर दे। __ जैनाचार्यों के अनुसार, ये संज्ञाएँ व्यक्ति के जीवन में हर समय विद्यमान रहती हैं। यद्यपि बचपन में मानसिक विकास की कमी होने से इनका प्रभाव नहीं दिखता, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि बचपन में इनका अस्तित्व नहीं होता है। इतना अवश्य है कि जैसे-जैसे शारीरिक विकास होता है, वैसे-वैसे ये प्रसुप्त संज्ञाएँ अभिव्यक्त होती जाती हैं। यह अवश्य है कि व्यक्ति इन्हें बाहर प्रकट नहीं करके कभी भीतर ही भीतर दबा देता है, तो कभी सन्तुष्ट भी कर देता है। जीवन-प्रबन्धन के लिए इन मनोवृत्तियों को समझना अत्यन्त जरुरी है, अन्यथा ये दीमक की भाँति व्यक्ति के व्यक्तित्व को खोखला कर देती हैं, जिससे उसका चित्त अस्थिर, असन्तुष्ट, अन्यमनस्क एवं असामंजस्यपूर्ण होता रहता है। जैनाचार्यों ने इसके समाधान हेतु कहा है कि मनुष्य जीवन दुर्लभतम है। इसका उपयोग सिर्फ खाने, पीने, सोने, भोगने, संग्रह आदि करने के बजाय मनोविकारों को समाप्त करने में करो, क्योंकि ये हमेशा दुःख देने वाले हैं। अतः शिक्षा-प्रबन्धन के अन्तर्गत आध्यात्मिक-शिक्षा की प्राप्ति करना अतिमहत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है, जिससे इन दुःखों से मुक्ति एवं परम सुख की प्राप्ति का मार्ग मिल सके। 42 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 156 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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