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माता ने उत्तर दिया – “हे पुत्र! तुम जो विद्या लेकर आए हो, वह तो महत्त्वहीन है, यदि तुम मुझे खुश करना चाहते हो, तो आध्यात्मिक शिक्षा (दृष्टिवाद) का अध्ययन करो।”
- जैनसिद्धान्तसाहित्य में भी आध्यात्मिक शिक्षा की प्रेरणा सर्वत्र दी गई है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है - शिक्षा का प्रयोजन अज्ञान का नाश करके संक्लेशों (दुःखों) से मुक्त होना ही है।80 दशवैकालिकसूत्र में भी आध्यात्मिक शिक्षा के चार प्रयोजन प्रतिपादित किए गए हैं31 - 1) सम्यग्ज्ञान (श्रुतज्ञान) की प्राप्ति करना। 2) चित्त की एकाग्रता प्राप्त करना। 3) धर्म में स्थिर होना। 4) स्व-पर को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करना।
अन्यत्र भी आध्यात्मिक शिक्षा के पाँच उद्देश्यों का निर्देश दिया गया है - 1) अभिनव तत्त्वों की प्राप्ति ।
___4) दूसरों के मिथ्या दृष्टिकोण का परिहार । 2) श्रद्धा की पुष्टि।
5) यथार्थ भावों की अनुभूति। 3) आचार की शुद्धि।
अतः हमें शिक्षा के सम्यक् प्रबन्धन हेतु लौकिक-शिक्षा के साथ-साथ आध्यात्मिक-शिक्षा का समावेश भी करना चाहिए। आध्यात्मिक शिक्षा का विशेष महत्त्व
जैनाचार्यों ने आध्यात्मिक शिक्षा को अत्यधिक महत्त्व दिया है। यहाँ तक कि लौकिक शिक्षा की तुलना में भी आध्यात्मिक शिक्षा को श्रेयस्कर ही कहा है। उनके अनुसार, जीवन का मूल उद्देश्य आत्मा की चरम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त करना है अर्थात् सत्य ज्ञान के द्वारा पूर्वकृत समस्त कर्मों का क्षय करना है। जैनाचार्य इसे ही मोक्षावस्था कहते हैं और उनकी दृष्टि में आध्यात्मिक शिक्षा के द्वारा ही इसकी प्राप्ति की जा सकती है।93
व्यावहारिक-जीवन की दृष्टि से भी जीवन-प्रबन्धक को आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। यदि अमेरिका जैसे देश के व्यक्ति भौतिक सुख-सुविधा से सम्पन्न होकर भी तनाव एवं अवसाद से ग्रस्त हैं, तो इसका मूल कारण है - आध्यात्मिक शिक्षा की अत्यधिक कमी। हमें यह मानना होगा कि भले ही भौतिक सुख-सुविधाओं के द्वारा दैहिक कष्टों से छुटकारा मिल सकता है, किन्तु मानसिक उद्वेग एवं व्यथाओं से कदापि नहीं। मानसिक शान्ति एवं प्रसन्नता का सम्बन्ध अंतरंग व्यक्तित्व के निर्माण से है, जिसके लिए वासनाओं एवं कामनाओं पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है और जो केवल आध्यात्मिक शिक्षा के द्वारा ही सम्भव है।
जीवन-प्रबन्धन के लिए आध्यात्मिक शिक्षा की आवश्यकता को अन्य प्रकार से भी जाना जा
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अध्याय 3 : शिक्षा-प्रबन्धन
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