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________________ शिक्षा के विविध मूल्य - जैनाचार्यों की दृष्टि व्यापक है, उन्होंने लौकिक-शिक्षा के साथ आध्यात्मिक-शिक्षा का समन्वय करने का निर्देश दिया है, जिससे जीवन के सामाजिक, शारीरिक एवं मानसिक पहलुओं का सम्यक् विकास हो सके तथा जीवन निर्द्वद्व एवं निराबाध बन सके। आचार्य महाप्रज्ञजी ने इसीलिए जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति को मूल्यपरक बनाने का निर्देश दिया है। उनके अनुसार, शिक्षा में निम्नलिखित सोलह मूल्यों का समावेश होना चाहिए - क्र. सामान्य मूल्य आचार्य महाप्रज्ञजी प्रणीत मूल्य 1) सामाजिक मूल्य 1) कर्त्तव्यनिष्ठा 2) स्वावलम्बन 2) बौद्धिक-आध्यात्मिक मूल्य 3) सत्य 4) समन्वय 5) संप्रदाय निरपेक्षता 6) मानवीय एकता 3) मानसिक मूल्य 4) नैतिक मूल्य 7) मानसिक सन्तुलन 8) धैर्य 9) प्रामाणिकता 10) करुणा 11) सह-अस्तित्व 5) आध्यात्मिक मूल्य 12) अनासक्ति 14) मृदुता 16) आत्मानुशासन 13) सहिष्णुता 15) अभय 3.6.3 शिक्षा के विविध आयाम शिक्षा प्रत्येक विकास का आधार है, अतः शिक्षा सिर्फ शिक्षा के लिए नहीं होनी चाहिए, अपितु जीवन के सम्यक् परिमार्जन एवं विकास के लिए होनी चाहिए। महाविद्यालयों के प्रवेश द्वार पर लिखा हुआ यह वाक्य, 'Enter to learn and go out to serve', विद्यार्थी के नैतिक विकास के लक्ष्य का सूचक है। इसी तरह आर्य संस्कृति का मूल वाक्य, ‘सा विद्या या विमुक्तये', भी विद्या के विकासशील आध्यात्मिक प्रयोजन को इंगित करता है। जैनपरम्परा में भी कहा गया है, 'सा विज्जा दुक्खमोयणी' अर्थात् जो दुःखों से मुक्त करे, वही शिक्षा है। उपर्युक्त सुभाषितों से स्पष्ट है कि सैद्धान्तिक स्तर पर सभी अपना सर्वांगीण विकास चाहते हैं, लेकिन वर्तमान में प्रायोगिक स्तर पर उनकी शिक्षा एकपक्षीय ही रहती है, इससे विकास भी एकपक्षीय होता है और शिक्षा की सार्थकता भी पूर्ण नहीं हो पाती। शिक्षा सार्थक तभी हो सकती है, जब इसमें सर्वांगीणता हो। ज्ञान की विस्तृतता एवं गहनता के लिए जीवन-प्रबन्धक को शिक्षा के विविध आयामों को समझकर जीवन में प्रयोग करना चाहिए। ये आयाम इस प्रकार हैं - (1) शारीरिक विकास (Bodily Development) – जीवनयात्रा में शरीर की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। सामान्यतया स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है, अतः बचपन से ही शरीर के प्रति विवेकपूर्ण व्यवहार करना चाहिए। स्थानांगसूत्र में कहा गया है – 'पहला सुख निरोगी काया'।87 157 अध्याय 3 : शिक्षा-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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