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________________ भगवान् महावीर की प्रज्ञा इतनी तीक्ष्ण थी कि बाल-वय में ही इन्होंने व्याकरण-शास्त्र की रचना कर दी, जो बाद में पूज्यपाद देवनन्दी के द्वारा 'जैनेंद्र-व्याकरण' के नाम से सुप्रसिद्ध हुई। सामाजिक-दृष्टि से धार्मिक आडम्बर, अन्धविश्वास और अन्धरूढ़ियों को दूर करने की शिक्षा दी। वेद-विहित हिंसा के विरुद्ध अहिंसा का उपदेश दिया। स्त्री-शिक्षा और शूद्र-शिक्षा के द्वार खोल दिए। वस्तुतः, इन्होंने पूर्व तीर्थंकरों द्वारा प्रचलित विचार और आचार सम्बन्धी सिद्धान्तों का देश-काल-सापेक्ष प्रतिपादन किया। इनके उपदेश लोक-भाषा में होने से आसानी से जनग्राह्य और जीवन-प्रबन्धन के लिए अत्यन्त उपयोगी थे। इन उपदेशों को गणधरों ने सूत्रबद्ध किया। प्रारम्भ में गुरु परम्परा के द्वारा चतुर्विध संघ को सूत्र और अर्थ के माध्यम से शिक्षित किया जाता था, आचार और विचार में समन्वयता के लिए उपधान, पौषध, तप, प्रायश्चित्त, प्रतिक्रमण, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि प्रायोगिक विधियाँ समाविष्ट की जाती थी। शिक्षा की यह परम्परा आज भी जैनधर्म में प्रचलित है। शिक्षा-व्यवस्था से सम्बन्धित महावीर के उपदेशों का संकलन हमें अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होता है, जैसे - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समावायांग, ज्ञाताधर्मकथा, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहारसूत्र, गच्छाचार, चंद्रवेध्यक आदि।" जैन-परम्परा का यह समृद्ध साहित्य जीवन-प्रबन्धन के लिए विशेष पठनीय है। (2) बौद्ध शिक्षा बौद्ध-परम्परा में भी आध्यात्मिक-शिक्षा के साथ-साथ लौकिक-शिक्षा पर यथोचित विचार किया गया है। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध थे। इनका जन्म ईसा पूर्व छठी शताब्दी में हुआ। इन्होंने दुःख-मुक्ति के लिए अष्टांग-मार्ग का प्रतिपादन किया। इस मार्ग का एक सूत्र है - सम्यक् आजीविका। यह सूत्र व्यक्ति को अपनी आजीविका को सुप्रबन्धित ढंग से अर्जित करने की शिक्षा देता है। इसका सम्बन्ध लौकिकता और पारलौकिकता दोनों से है। औचित्यपूर्ण आजीविका ही सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने और पारलौकिकता के लिए सन्मार्ग निरुपित करने में सहायक है।" आध्यात्मिक दृष्टि से बौद्धशिक्षा का उद्देश्य 'निर्वाण' है, जिसका अर्थ है – तृष्णा की अग्नि का बुझ जाना।" लौकिक दृष्टि से बौद्ध शिक्षा का उद्देश्य दुःखमुक्त जीवन के लिए देश-व्यवहार के ज्ञान को प्राप्त कराना है। बौद्धकालीन लौकिक शिक्षा के अन्तर्गत अन्य विषयों के साथ छियानवे (96) कलाओं और चौसठ (64) लिपियों की शिक्षा भी दी जाती थी। बौद्ध-परम्परा में विविध शिक्षण-पद्धतियों का उल्लेख मिलता है, जैसे - पाठ-विधि, शास्त्रार्थ-विधि, उपमा-विधि, प्रश्नोत्तर-विधि, उपदेश-विधि, प्रमाण-विधि, स्वाध्याय–विधि आदि। ये विधियाँ प्रकारान्तर से जैन-परम्परा में भी प्रचलित रही हैं। 23 बौद्ध-परम्परा के मूल साहित्य 'विनयपिटक', 'सूत्तपिटक' और 'अभिधम्मपिटक' हैं। जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 120 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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