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________________ जैनधर्मदर्शन के अनुसार, इस युग (अवसर्पिणी काल) में चौबीस तीर्थकर हुए, जिनमें प्रथम श्रीऋषभदेव एवं अन्तिम श्रीमहावीरस्वामी हैं। इनके उपदेश जैनशिक्षा के प्रमुख स्रोत हैं। (क) ऋषभदेव - ये मानवीय सभ्यता या प्रबन्धन के आदिपुरूष हैं। इन्हें समाज-प्रबन्धन राज्य-प्रबन्धन और धर्म-प्रबन्धन का पुरोधा माना जाता है। इन्होंने राजा के रूप में असि (सैन्यवृत्ति), मसि (लिपिविद्या), कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प की शिक्षाएँ दी। सैन्य-व्यवस्था को सुसंगठित किया, जिससे बाहरी शक्तियों की चुनौतियों का सामना किया जा सके, लिपि-विद्या सिखाकर शिक्षा की नींव डाली और भाषिक-संप्रेषण की व्यवस्था दी, कृषि आदि के माध्यम से सामाजिक-वृत्तियों का पोषण और लूटपाट, हत्या, चोरी आदि असामाजिक-प्रवृत्तियों का निषेध किया। अपनी प्रथम पुत्री ब्राह्मी को अठारह लिपियों का ज्ञान कराया, तो द्वितीय पुत्री सुन्दरी को गणित का अध्ययन कराया। गणित के अन्तर्गत मान, उन्मान, अवमान, प्रतिमान आदि मापों से अवगत कराया। पुरूषों को बहत्तर (72) कलाएँ और स्त्रियों को चौसठ (64) कलाएँ सिखाई। लोगों को अग्नि जलाने, भोजन बनाने, बर्तन बनाने, वस्त्र बुनने आदि विधियों से परिचित कराया। हाथी, घोड़े, गाय आदि पशु-सम्पदा का सदुपयोग करना सिखाया। इस प्रकार, भले ही ये बातें आज के इस युग में बहुत सामान्य प्रतीत होती हों, लेकिन ऋषभदेव ने तात्कालिक मानव जाति को सुसंस्कृत और सभ्य बनाने के लिए अमूल्य शिक्षाएँ दी। वस्तुतः, ये शिक्षाएँ इस वर्तमान युग में भी लौकिक-जीवन के प्रबन्धन के लिए नींव का पत्थर सिद्ध हो रही हैं। इनका उल्लेख न केवल जैन, बल्कि जैनेतर ग्रन्थों में भी मिलता है। __ भगवान् ऋषभदेव के आध्यात्मिक उपदेशों से आत्म-कल्याण की शिक्षाएँ भी प्राप्त हुई। साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका के रूप में चतुर्विध संघ की स्थापना हुई। इनकी शिक्षाओं से ही मोह, राग-द्वेष और कषायों का क्षय कर आत्म-उत्कर्ष को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस प्रकार, इनका जीवन-प्रबन्धन के क्षेत्र में अनन्य उपकार है। (ख) महावीर – इनका जन्म 599 ई. पूर्व में हुआ था। वह समय धार्मिक और आध्यात्मिक आन्दोलनों का युग था, जिसमें प्रायः सभी संप्रदाय अपने-अपने मत और पन्थ को श्रेष्ठ बताकर दूसरों की निन्दा कर रहे थे। ऐसे समय महावीर ने पूर्व तीर्थंकरों का अनुकरण किया और सभी मतों का सम्यक् संश्लेषण (Right Synthesis) करके 'अनेकान्तवाद' की स्थापना की। इसके अनुसार, प्रत्येक वस्तु या पदार्थ अनन्तधर्मात्मक होता है, जिसमें परस्पर विरोधी धर्मों (गुण-पर्यायों) का सह-अस्तित्व होता है, जैसे – नित्य-अनित्य, शुद्ध-अशुद्ध, एक-अनेक आदि। महावीर का यह सिद्धान्त जीवन के हर क्षेत्र में समन्वयात्मक दृष्टिकोण को अपनाने की कला सिखाता है। इससे जीवन-प्रबन्धन के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक आदि समस्त क्षेत्रों में संघर्षों के बजाय समाधान की प्राप्ति होती है। भगवान् महावीर ने जीवन और जगत् के सन्दर्भ में जो वैज्ञानिक प्रतिपादन किया, वह आज भी प्रासंगिक है। वस्तुस्वरूप को समझने और समझाने के लिए इन्होंने निक्षेप, प्रमाण, नय, अनुयोग , समास, मार्गणा, स्वाध्याय आदि विधियों की शिक्षाएँ दी, जिनकी चर्चा आगे की जाएगी।" 119 अध्याय 3 : शिक्षा प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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