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________________ (3) वैदिक-शिक्षा प्रागैतिहासिक काल में ही एक युग था - वैदिक युग। इस युग में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र - ऐसी चतुर्वर्णीय व्यवस्था थी। ब्राह्मण ही समाज का सबसे प्रभावशाली वर्ग एवं विद्यानिधि था, अतः यहाँ पर ब्राह्मणिक या वैदिक शिक्षा का प्रादुर्भाव हुआ। ब्राह्मणिक शिक्षा के अन्तर्गत अपने-अपने संप्रदाय के अनुसार वेदों का मौखिक अध्ययन किया जाता था। एक वेद का अध्ययन करने का अर्थ था – बारह वर्ष तक गुरु के यहाँ संन्यासी की भाँति रहना। समाज भी विद्यार्थी को प्रसन्नतापूर्वक भोजन और धन प्रदान करता था। विद्यार्थी जीवन केवल शिक्षा ग्रहण करने का ही नहीं, अपितु अनुशासन पालन करने का भी समय होता था। शिष्य अपने गुरु की सेवा करते और उनके लिए भिक्षा भी माँगकर लाते थे। वे शिष्य साधारण वस्त्र पहनते थे। उत्तरीय एवं अधोवस्त्र ही कुल पोशाक थी। उनके केश जटाओं के रूप में होते अथवा सिर मुण्डित होता था। गुरु और शिष्य दोनों नैतिक जीवन का एक उच्चादर्श पालन करते थे। प्रायः ईसा पूर्व दसवीं शताब्दी उपनिषदों का रचनाकाल माना जाता है। इन उपनिषदों में शिक्षा के आध्यात्मिक पक्ष की प्रधानता रही। कहा भी गया है – ‘सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात् विद्या वही है, जो विमुक्ति के लिए हो। लोगों की दृढ़ मान्यता थी कि 'ज्ञान बिना मुक्ति कदापि सम्भव नहीं है।' इस प्रकार, प्राचीन युग में शिक्षा को उचित महत्त्व दिया जाता था। भले ही उसमें वर्तमान वस्तुनिष्ठ शिक्षा-पद्धति का अभाव था, लेकिन वह शिक्षा भी लौकिक और आध्यात्मिक शिक्षा का सुन्दर समायोजन थी। यह शिक्षा ही भारतीय संस्कृति और सभ्यता की नींव है। इस शैक्षिक विकास के बल पर ही भारत को 'जगद्गुरु' भी कहा जाता रहा है। सही अर्थों में, आज भी जीवन के प्रबन्धन के लिए इस शिक्षा की अत्यधिक आवश्यकता है। 3.2.2 मध्य युग में शिक्षा का महत्त्व इस युग का समय ईसा की पाँचवीं से सोलहवीं सदी के मध्य रहा है। जैसे-जैसे सामाजिक विकास होता गया, वैसे-वैसे शिक्षा व्यवस्था भी व्यापक होती गई। धीरे-धीरे विविध विद्याओं के विशेषज्ञों की आवश्यकता उत्पन्न होने लगी। साथ ही उत्तरोत्तर बढ़ती हुई विद्या, अनुभव, ज्ञान एवं संस्कार की निधि को चिरजीवित रखने के लिए विशेष शिक्षासंस्थानों का जन्म हुआ, जो बाद में उच्च शिक्षा के विख्यात केंद्र बन गए। ये केंद्र आधुनिक विज्ञान सम्बन्धी पढ़ाई और शोध-कार्यों को छोड़कर, शेष बातों में आधुनिक विश्वविद्यालय के समान ही थे। इनमें से नालन्दा, तक्षशिला, प्रयाग, बनारस, कन्नौज, पाटलीपुत्र, धारानगरी, वल्लभीपुर, सारनाथ, विक्रमशिला आदि अतिप्रसिद्ध हुए। कुछ तो अन्तर्राष्ट्रीय विद्या केंद्र भी बन गए। इन शिक्षण केंद्रों में विशिष्ट परम्परा थी कि शिक्षा के प्रारम्भ में उपनयन संस्कार और समापन पर समावर्तन संस्कार होता था। समापन के समय आचार्य द्वारा दीक्षान्त भाषण में छात्रों को सदाचार, समाज-सेवा आदि कर्तव्यों का स्मरण कराया जाता था। तत्पश्चात् छात्रों को अपने कर्तव्यपूर्ति में निरन्तर रत रहने के लिए सामूहिक शपथ भी दी जाती थी। सुदूर विदेशों से 121 अध्याय 3 : शिक्षा प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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