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________________ 2.4 जैनआचारमीमांसा में जीवन-प्रबन्धन के मुख्य तत्त्व मानव-जीवन अनेकानेक समस्याओं से युक्त है। प्रत्येक मानव इन समस्याओं से मुक्त होना चाहता है, किन्तु जीवन के सम्यक् प्रबन्धन के अभाव में यह सम्भव नहीं हो पाता। जैनआचारशास्त्रों में ऐसे अनेक तत्त्व भरे हैं, जिनके आश्रय से मानव अपनी समस्याओं से मुक्ति पा सकता है। वह अपने जीवन को आनन्द एवं प्रसन्नता से सराबोर कर सकता है। इसे ही जीवन-प्रबन्धन की आदर्श स्थिति कही जा सकती है। 2.4.1 मानवीय जीवन की समस्याएँ जीवन-प्रबन्धन-शास्त्र का लक्ष्य उस मार्ग का प्रतिपादन करना है, जिस पर चलकर जीवन के सभी संघर्षों का समाधान होकर समत्व की स्थापना हो जाए। परन्तु मानवीय जीवन का अंतरंग एवं बाह्य परिवेश निरन्तर बदलता रहता है, जो जीवन को असन्तुलित और अस्त-व्यस्त कर देता है। एक ओर समाज, परिवार, शरीर, पर्यावरण आदि बाह्य परिवेश के तत्त्व हैं, जो समस्याएँ उत्पन्न करते हैं, तो दूसरी ओर दमित मनोभाव, उद्वेग, वासना, बुद्धि आदि अंतरंग परिवेश के घटक भी मानव को विचलित अर्थात् तनावग्रस्त करते रहते हैं। इससे मानव का जीवन द्वन्द्व एवं संघर्षों से घिरा रहता है, ये संघर्ष तीन प्रकार के होते हैं - 1) आन्तरिक मनोवृत्तियों का संघर्ष - यह संघर्ष दो वासनाओं (Id या दमित-इच्छाओं) के मध्य, वासना और बुद्धि (Ego) के मध्य तथा वासना एवं बौद्धिक आदर्शों (Super Ego) के मध्य होता रहता है। 2) आन्तरिक इच्छाओं एवं बाह्य परिस्थितियों का संघर्ष - यह संघर्ष व्यक्ति का व्यक्ति के साथ अथवा समाज के साथ अथवा भौतिक-पर्यावरण के साथ होता रहता है और इससे व्यक्ति की जीवन-प्रणाली विकृत होती रहती है। 3) बाह्य वातावरण में होने वाला संघर्ष - यह संघर्ष विविध समाजों एवं राष्ट्रों के मध्य होता रहता है, जिससे शान्ति, सुरक्षा एवं मानव-अस्तित्व खतरे में पड़ जाते हैं। व्यक्ति इन तीनों संघर्षों से निरन्तर दुःखी और सन्तप्त रहता है, जबकि जैनआचारशास्त्र परमशान्ति एवं आत्मपूर्णता की प्राप्ति का मार्ग दर्शाते हैं। किन्तु क्षणिक शान्ति भी जिसे प्राप्त नहीं हो रही हो, शाश्वत् एवं परिपूर्ण शान्ति की बात उसके गले कैसे उतर सकती है? व्यक्ति को जैन-विचारकों की ये बातें केवल काल्पनिक ही लगती हैं, वह इन्हें सुखद स्वप्न के समान मान लेता है। इस प्रकार, जीवन-संघर्षों से छटपटाता हुआ वह अशान्त एवं निराशामय जीवन बिताता रहता है। ___ भले ही व्यक्ति दुःखी होकर जीवन व्यतीत करता है, लेकिन उसे सुख-शान्ति की चाह सदैव बनी रहती है। दशवैकालिक में स्पष्ट कहा गया है कि 'सभी जीवों को सुख प्रिय है, वे दुःखों से दूर रहना चाहते हैं। वस्तुतः, जैन-विचारकों की दृष्टि बौद्धिक-विलास या कल्पना नहीं है, वरन् एक 12 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 102 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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