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________________ (6) विभिन्न नैतिक मान्यताओं की सम्यक् समीक्षा करने का निर्देश सामान्य व्यक्ति में ज्ञान की अपूर्णता होने से परमार्थ के उचित स्वरूप का निर्णय कर पाना अतिकठिन हो जाता है। इससे अनेक अनैतिक मान्यताओं की भी स्थापना हो जाती है। व्यक्ति के समक्ष यह समस्या उत्पन्न हो जाती है कि वह किसे सही कहे और किसे गलत। वह निर्णय नहीं कर पाता है कि कौन-सा जीवन-व्यवहार उचित है और कौन-सा अनुचित, वह किसे शुभ (नैतिक) कहे और किसे अशुभ (अनैतिक)? नीतिशास्त्र में नैतिक प्रतिमानों (Ethical Standards) के अनेक सिद्धान्त हैं। इनमें से कोई 'नियम' को, तो कोई 'सुख' को नैतिक प्रमापक कहता है। इसी प्रकार कोई 'आत्मपूर्णता' को, तो कोई 'मूल्य' को नैतिकता का बुनियादी मापदण्ड मानता है। जीवन-प्रबन्धन के लिए यह जरुरी है कि व्यक्ति आचारशास्त्र के द्वारा निर्दिष्ट विभिन्न नैतिक प्रतिमानों का व्यवस्थित अध्ययन करे एवं उनके गुण-दोषों की उचित समीक्षा करके सम्यक निर्णय ले। इस दिशा में जैन विचारकों की दृष्टि अतिव्यापक है। इन्होंने अनेकान्त-दृष्टि से जीवन-व्यवहारों की समीक्षा की है, सापेक्षवाद के आधार पर विविध जीवन-प्रबन्धन सम्बन्धी मान्यताओं को कसौटी पर कसा है एवं अपक्षपात-बुद्धि से देश, काल एवं परिस्थिति के अनुरूप नैतिक विवेक की चेतना को जाग्रत करने का दिग्दर्शन दिया है। (7) जीवन के आध्यात्मिक विकास के उचित प्रबन्धन का निर्देश ___ जीवन-प्रबन्धन की मूलभूत आवश्यकता है कि व्यक्ति जीवन-यापन के साथ-साथ जीवन-निर्माण के उद्देश्य की पूर्ति भी करे। इस हेतु जैनआचारमीमांसा में उपयोगी निर्देश दिए गए हैं। जैन-विचारकों ने जीवन-यापन के प्रयत्नों को नकारा नहीं है, किन्तु उन्हें आवश्यकतानुसार ही करने का निर्देश दिया है। यही कारण है कि इन्होंने जीवन-व्यवहार में भोगों से निवृत्ति एवं अर्थ के अल्पीकरण की शिक्षा सदैव दी है। साथ ही दान, शील, तप एवं भावना रूप धर्म प्रयत्नों को बढ़ाते हुए परमपद मोक्ष को पाने की प्रेरणा भी दी है। इसी प्रकार जीवन में आनन्द की निरन्तर वृद्धि हो, इस हेतु आवश्यकताओं (इच्छाओं) पर अंकुश लगाने की हित शिक्षा भी दी है। उत्तराध्ययनसूत्र में जीवन के आध्यात्मिक विकास के प्रबन्धन के उपाय को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'साधक को जीवन में असत्प्रवृत्तियों से निवृत्त होते हुए सत्प्रवृत्तियों में संलीन होना चाहिए। इस प्रकार, यह स्पष्ट होता है कि जैनआचारमीमांसा एवं जीवन-प्रबन्धन के मध्य गहरा सम्बन्ध है। व्यक्ति के जीवन-व्यवहार को प्रबन्धित करने के लिए जैनआचारमीमांसा अत्यन्त हितकारी है। इसे आधार बनाकर व्यक्ति जीवन-प्रबन्धन की सम्यक् दशा को जीवन में अवश्य प्राप्त कर सकता है। इसी से जैनआचारशास्त्र एवं जीवन-प्रबन्धन का सहसम्बन्ध सिद्ध होता है। =====4.>===== 101 अध्याय 2 : जैनदर्शन एवं जैनआचारशास्त्र में जीवन-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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