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________________ 8 साभिनन्दन शुभकामना - स्वामी गोविन्ददेव गिरि (आचार्य किशोर व्यास) अपने प्रिय स्वदेश का नाम भारतवर्ष है। 'भारत' शब्द का अर्थ ही ‘ज्ञान की आभा, याने प्रकाश में निरन्तर निमग्न रहने वाला देश' ऐसा है। अपने प्राचीन समृद्ध वाङ्मयभाण्डार की ओर दृष्टिपात करते ही इस नाम की सार्थकता ध्यान में आती है। लगभग ऐसा कोई विषय ही नहीं दिखता, जिसके बारे में प्राचीन भारतीय मनीषियों ने मार्गदर्शन न किया हो। आजकल सर्वत्र प्रचलित प्रबन्धन-शास्त्र भी इसमें अपवाद नहीं है। महर्षि वेदव्यास प्रणीत महाभारत का परिशीलन करते हुए मुझे बारबार लगता है कि यह प्रबन्धन-शास्त्र का शिरोमणि ग्रन्थ है। श्री क्षेत्र पुष्कर राज में इस विषय की चर्चा श्रीरामकृष्णजी काबरा (इन्दौर) के साथ करते समय पता चला कि जीवन-प्रबन्धन विषयक व्यापक अनुसन्धान आदरणीय मुनिश्री मनीषसागरजी महाराज ने किया है और आपका वह प्रबन्ध प्रकाशन के मार्ग पर है। मेरी जिज्ञासा पर श्री काबराजी ने प्रकाश्य ग्रन्थ की एक प्रति मुझे भेज दी। _ 'जैनआचारमीमांसा में जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व' इस बृहद् ग्रन्थ के महत्त्वपूर्ण प्रकरणों का वाचन और शेष ग्रन्थ का प्रसंगोपात अवलोकन करके मैं साश्चर्य आनन्द विभोर हो गया। अध्ययनशील आदरणीय जैन मुनिवरों से मेरा दीर्घकालीन परिचय एवं सत्संग रहा है। इसमें श्रद्धेय मुनिश्री मनीषसागरजी महाराज के अध्ययन की व्यापकता, चिन्तन की गहराई और लेखन की स्पष्टता देखकर मैं आह्लादित हुआ। भारतीय संस्कृति की एक शोभायमान पक्ष जैन-दर्शन एवं श्रमण-परम्परा है। जैनागमों में अत्र-तत्र बिखरे हुए प्रबन्धन-कला के सूत्रों को सूक्ष्मता से चुनकर मुनिश्री ने इस ग्रन्थ में कुशलता से गूंथा है। असल में प्राचीन जैन-साहित्य का नवीन दृष्टिकोण से अध्ययन एवं प्रस्थापना करके मुनिश्री ने एक नया आयाम ही उजागर कर दिया है। शिक्षाप्रबन्धन, समयप्रबन्धन, शरीरप्रबन्धन तथा सामाजिक एवं धार्मिकव्यवहार प्रबन्धन - ये शब्द ही जीवन की ओर देखने का एक अलग दृष्टिकोण प्रदान कर देते हैं। श्रद्धेय मुनिश्री का विवेचन पाश्चात्य विद्वानों की प्रबन्धन विषयक परिभाषा एवं विचारों के संकलन तथा समीक्षा के साथ प्रारम्भ होता है। पृ. 60 पर आधुनिक भौतिकताप्रधान जीवनशैली के दुष्परिणामों की सटीक प्रस्तुति है तथा अन्तिम पृष्ठों पर प्रदत्त 'भौतिक और आर्थिक विकास यद्यपि जीवन जीने के लिए आवश्यक हैं, फिर भी उनका सम्यक् प्रबन्धन तो नैतिक, धार्मिक तथा आध्यात्मिक जीवन-मूल्यों पर ही आधारित होगा' – यह निष्कर्ष न केवल पूर्णतया सत्य है, बल्कि यही भारतीय संस्कृति का सारभूत उद्घोष है। इस सांस्कृतिक उद्घोष को अखण्ड अध्यवसाय से श्रद्धेय मुनिश्री ने आधुनिक परिभाषा में सुदृढ़ तार्किक आधार देकर परिपुष्ट किया, इसलिए आपका पुनः-पुनः हार्दिक अभिनन्दन। ग्रन्थ के सर्वत्र प्रचारार्थ शुभकामनाएँ। 10 अगस्त, 2012 (शविदेशीर ___ धर्मश्री, पुणे श्रीकृष्ण जन्माष्टमी स्वामी गोविन्ददेव गिरि میں می ۔ جس می م م م م م م م مم می می می می می می می می می می می می می می می می می می می می می می می جمی۔ م سید م م م م م م م م م م م م م م م م م م م م م م م م م م م م م م م م م مره مره من همیشه سعی می مردم V1 Jain Education International जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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