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________________ के अंतरंग और बाह्य पक्षों में सन्तुलन आ जाता है तथा जीवन - प्रबन्धक एक स्वस्थ जीवनशैली को प्राप्त कर लेता है । जैनदर्शन के अनुसार, इन साधक या बाधक तत्त्वों की मौजूदगी केवल बहिरंग परिवेश में ही नहीं, अपितु अंतरंग परिवेश में भी होती है, अतः जीवन - प्रबन्धक के लिए इन दोनों परिवेश का सम्यक् परिज्ञान होना आवश्यक है। इनका वर्णन इस प्रकार है (क) अंतरंग परिवेश (Internal - Environment) व्यावहारिक दृष्टि से आत्मिक और शारीरिक योग्यताओं का योग ही जीवन की अभिव्यक्ति है और इस अपेक्षा से द्रव्य तथा भाव - प्राण का समूह ही अंतरंग परिवेश है। इसे व्यक्ति का व्यक्तित्व भी कहा जा सकता है। इस अंतरंग परिवेश में एक ओर तत्त्व भी होते हैं। जीवन-उपयोगी साधक तत्त्व होते हैं, तो दूसरी ओर विकार रूप बाधक उदाहरणस्वरूप, शरीर की स्वस्थता साधक तत्त्व है और अस्वस्थता बाधक तत्त्व । इसी प्रकार दया, शान्ति, क्षमा, सहिष्णुता, धैर्य आदि सद्भावों का होना साधक तत्त्व है तथा क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कषायों का होना बाधक तत्त्व है । (ख) बहिरंग परिवेश (External - Environment) अंतरंग परिवेश को छोड़कर, वह सम्पूर्ण परिवेश जो अति व्यापक है एवं जिसमें सम्पूर्ण जीव और जड़ जगत् का समावेश हो जाता है, बहिरंग परिवेश कहलाता है, जैसे- परिजन, समाज, पूंजी, गृह, प्रतिष्ठान, उपकरण, भूमि, वन, नदी, पर्वत आदि । अंतरंग परिवेश के समान बाह्य परिवेश में भी साधक और बाधक दोनों ही तत्त्वों की उपस्थिति रहती है, जैसे सत्संग, सद्विचार और सद्धर्म के प्रेरक निमित्त साधक तत्त्व हैं, जबकि असत्संग, कुविचार और अधर्म के प्रेरक निमित्त बाधक तत्त्व हैं। उपर्युक्त दोनों परिवेशों में यह अन्तर है कि अंतरंग - परिवेश स्वयं जीवन - प्रबन्धक और उसकी योग्यताएँ हैं, जबकि बहिरंग परिवेश जीवन - प्रबन्धक को छोड़कर सम्पूर्ण पर्यावरण है। 68 आत्मिक आत्मा और उसके विकारी एवं अविकारी भाव / संस्कार Jain Education International अंतरंग शारीरिक जीवन प्रबंधन का परिवेश - शरीर और उसकी इन्द्रिय, मन, वचन, काया आदि योग्यताएँ मानवीय परिवार, मित्र, कुटुंब, समाज आदि जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only बहिरंग गैरमानवीय चराचर संपत्ति जैसे भूखण्ड, पूँजी, प्रतिष्ठान आदि ० प्राकृतिक संस्थान जैसे-हवा, पानी, पर्वत, नदी, वन आदि १० अन्य जीव जगत 68 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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