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________________ ★ साधक या उपादेय तत्त्व ★ असम्बन्धित या ज्ञेय तत्त्व ★ बाधक या हेय तत्त्व (1) साधक तत्त्व या उपादेय तत्त्व - वे व्यक्ति, वस्तु या परिस्थितियाँ, जो साधक के सुव्यवस्थित एवं आत्मिक-शान्तिमय जीवन में सहायक होने से ग्रहण या स्वीकार करने योग्य होती हैं, साधक तत्त्व या उपादेय तत्त्व कहलाती हैं। इन्हें ही उपाय, हेतु, साधन या साधक कारण भी कहते हैं। कुशल जीवन-प्रबन्धक इन साधक तत्त्वों को उचित महत्त्व देकर जीवन में इनका सम्यक् प्रयोग करता है। (2) असम्बन्धित या ज्ञेय तत्त्व - वे व्यक्ति, वस्तु या परिस्थितियाँ, जिनसे व्यक्ति का विकास और ह्रास दोनों ही नहीं होता और जो केवल जानने योग्य होती हैं, असम्बन्धित या ज्ञेय तत्त्व कहलाती हैं। ये जीवन को किसी भी रूप में प्रभावित नहीं करती। कुशल जीवन-प्रबन्धक इन तत्त्वों की चाहना नहीं करके एकमात्र अपने जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता है। वस्तुतः, जीवन के बदलते हुए परिवेश में जो अनेकानेक तथ्य या स्थितियाँ प्राप्त होती हैं, उनमें से अधिकांश 'ज्ञेय' रूप होती हैं। (3) बाधक तत्त्व या हेय तत्त्व – वे व्यक्ति, वस्तु या परिस्थितियाँ, जो जीवन-प्रबन्धक के लिए अव्यवस्थित, अशान्तिमय एवं तनावयुक्त जीवन का कारण होने से त्याग करने योग्य होती हैं, बाधक या हेय तत्त्व कहलाती हैं। कुशल जीवन-प्रबन्धक इनकी व्यर्थता को समझकर इनसे दूर ही रहता है। किसी भी प्रबन्धक के लिए बाधक और साधक तत्त्वों की स्पष्ट समझ होना आवश्यक है, अन्यथा वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। उदाहरणस्वरूप, विद्यार्थी का टी. वी. देखना बाधक तत्त्व हो सकता है और पाठ्यपुस्तक का अध्ययन करना साधक तत्त्व हो सकता है। इसी प्रकार किसी आध्यात्मिक साधक के लिए परिवार, कुटुंब, समाज, धन-सम्पत्ति इत्यादि बाधक तत्त्व हो सकते हैं और सुदेव, सुगुरु, सुधर्म इत्यादि साधक तत्त्व हो सकते हैं। वस्तुतः जीवन-प्रबन्धन एक प्रकार की चिकित्सा पद्धति ही है। जिस प्रकार चिकित्सा प्रक्रिया में एक ही समय में भिन्न-भिन्न रोगियों के लिए अथवा भिन्न-भिन्न समय में एक ही रोगी के लिए कोई औषधिविशेष अमृततुल्य भी हो सकती है और विषतुल्य भी, उसी प्रकार जीवन-प्रबन्धन की प्रक्रिया में एक ही समय में अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अथवा अलग-अलग समय में एक ही व्यक्ति के लिए कोई सामग्री साधक भी हो सकती है और बाधक भी। उदाहरणस्वरूप, प्रतिक्रमण (दोष-शुद्धि की प्रक्रिया) को किसी प्रसंग में अमृतकुम्भ कहा गया, तो किसी प्रसंग में विषकुम्भ भी।229 इतना ही नहीं, जिस प्रकार चिकित्सा-प्रक्रिया में अनुक्रम से रोगी का उपचार किया जाता है, उसी प्रकार जीवन-प्रबन्धन में जीवन की विकृतियों का क्रमशः उपचार किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप जीवन 67 अध्याय 1: जीवन-प्रबन्धन का पथ 6 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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