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________________ 1.5 जीवन-प्रबन्धन की मौलिक अवधारणा एवं स्वरूप 1.5.1 जीवन-प्रबन्धन की आवश्यकता आधुनिक युग को तीव्र विकास का युग कहा जाता है। इसमें हुई वैज्ञानिक प्रगति से एक आम आदमी की विचारधारा में व्यापक परिवर्तन आया है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण ने शताब्दियों से प्रचलित अंधविश्वासों और अंधरूढ़ियों को ध्वस्त कर दिया है। वैज्ञानिक शिक्षा पाकर व्यक्ति अधिक तार्किक हो गया है, विश्लेषणात्मक बुद्धि से उसकी सोच व्यापक और ज्ञान गहन हो गया है। वैज्ञानिक प्रगति से औद्योगिक विकास में गति आई है, फलतः व्यक्ति की साधन-सम्पन्नता में भी अभिवृद्धि हुई है। इससे उसका आर्थिक और सामाजिक स्तर भी बहुत उन्नत हुआ है। जीवन जीने के लिए आवश्यक साधन न केवल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो रहे हैं, बल्कि क्रयशीलता बढ़ जाने से सुख-सुविधा के साधनों की पहुँच आम आदमी तक हो गई है। अतः यह कल्पना होना स्वाभाविक है कि आज जीवन कितना सुखमय हो गया है, जबकि यह केवल एक भ्रान्ति है। ___ जीवन जीने के चार साधन हैं – समय, समझ, सामर्थ्य और सामग्री, जिनका हर व्यक्ति अधिकाधिक दोहन करना चाहता है। आज के युग का नारा है - 'अल्पातिअल्प समय में कल्पनातीत विकास करना'। क्या पुरूष और क्या महिलाएँ, क्या बालक और क्या वृद्ध , क्या ग्रामीण और क्या शहरी, क्या नेता और क्या अभिनेता, क्या अफसर और क्या व्यवसायी - सभी विकास की अंधी दौड़ में भाग रहे हैं, इसीलिए इस युग को 'जेट युग' भी कहा जाता है। यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति विकास के सुनहरे सपने देख रहा है और दिन-रात परिश्रम कर रहा है, फिर भी यह सत्य है कि आज न लक्ष्य का सम्यक् निर्धारण है और न ही मार्ग की सुस्पष्टता। यह अन्तहीन सिलसिला अनवरतरूप से चलता ही रहता है और व्यक्ति का जीवन असन्तुलित, अव्यवस्थित और असमन्वित बना रहता है। अस्त, व्यस्त और त्रस्त जिंदगी की स्थिति ऐसी है, मानों ‘मरने की फुरसत नहीं और क्षण का भरोसा नहीं'। संसार की असारता का चित्रण करते हुए किसी ने सच ही कहा है17 - दाम बिना निर्धन दुःखी, तृष्णावश धनवान। कहीं न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान।। प्रश्न उठता है कि आखिर मानव क्यों दौड़ लगा रहा है, वह किस ऊँचाई को छूना चाहता है और उसके जीवन का परम साध्य क्या है (What is the ultimate goal of a human life)? ___ इसका चिन्तन और समीक्षण करने पर उत्तर स्पष्ट है कि दुःख से मुक्ति और सुख की प्राप्ति ही प्रत्येक प्राणी का परम-साध्य है और तद्हेतु ही वह जीवनभर प्रयत्नशील रहता है।18 वह एक ऐसी ऊँचाई को छूना चाहता है, जहाँ पहुँचकर जीवन में तनाव एवं चिन्ता का कोई स्थान न रहे और सदा-सदा के लिए सुख, शान्ति और आनन्द की प्राप्ति हो जाए, किन्तु वास्तव में इस अवस्था को 58 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 58 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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