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________________ प्रश्न है, जैनदर्शन में सदा से ही मौखिक संप्रेषण-प्रणाली की मुख्यता रही है। आवश्यकता पड़ने पर आदेश की अधिक स्पष्टता हेतु आपसी विचार-विमर्श भी किया जाता है और इसके अतिरिक्त प्रतिदिन सुबह-शाम ज्येष्ठ-वन्दना की परम्परा भी है, जिससे असंवाद की स्थिति निर्मित ही नहीं होती।215 - इस प्रकार, उपर्युक्त चौदह सिद्धान्त प्रत्येक व्यक्ति के लिए सामाजिक जीवन में अपनी भूमिका को स्पष्ट करने में, पारस्परिक व्यवहार को सम्यक् दिशा प्रदान करने में, पारस्परिक सौहार्दता का वातावरण निर्मित करने में तथा सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में सहयोगी बन सकते हैं और यह जीवन-प्रबन्धन के लिए अपेक्षित भी है। 1.4.12 प्रबन्धन का क्षेत्र (Scope of Management) ___ आधुनिक युग में प्रबन्धन का एक विधा (Discipline) के रूप में प्रादुर्भाव हुए 75 वर्षों से भी अधिक काल हो चुका है और इसका क्षेत्र निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है, फिर भी इसका मुख्य लक्ष्य भौतिक-विकास पर ही केन्द्रित है। प्रारम्भ में औद्योगिक विकास के लिए ही प्रबन्धन-चेतना का उद्भव हुआ और शनैः-शनैः यह अधिकतम उत्पादन और अधिकतम लाभ का एक महत्त्वपूर्ण कारक बन गया। वर्तमान में प्रत्येक औद्योगिक संगठन में इसकी उपयोगिता को स्वीकार किया जा रहा है। इतना ही नहीं, प्रबन्धन की बढ़ती लोकप्रियता से अन्य सामाजिक क्षेत्र भी इसकी ओर आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सके। फलस्वरूप, प्रबन्धन की व्यापकता और उपयोगिता में दिनोंदिन अभिवृद्धि होती जा रही है और आज आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, न्यायिक, शैक्षणिक आदि अनेक संगठनों में भी इसकी आवश्यकता महसूस की जा रही है। फिर भी, इतना अवश्य है कि आधुनिक प्रबन्धन-विधा में प्रबन्धन की विषय-वस्तु मुख्यतया भौतिक संसाधनों के प्रबन्धन पर ही आधारित रही है और व्यक्तित्व विकास का स्थान गौण ही रहा है। वर्तमान में व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की अत्यधिक आवश्यकता है, अतः आज हमें प्रबन्धन के क्षेत्र को व्यापक बनाना होगा, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक विकास तक सीमित न रखकर, आध्यात्मिक विकास से भी जोड़ सके। प्राचीनकाल से ही आध्यात्मिक विचारकों और साधकों ने भौतिक-विकास की अपेक्षा आध्यात्मिक-विकास को ही श्रेयस्कर माना है और इसीलिए जैनआचारशास्त्रों में जीवन के आध्यात्मिक स्तर को ऊँचा उठाने का ही लक्ष्य रहा हैं। ‘जीवन कैसे जीना चाहिए?' इस ज्वलन्त और जटिल प्रश्न का सम्यक् समाधान ही इन शास्त्रों का कथ्य, तथ्य और निष्कर्ष है। दूसरे शब्दों में, जैनआचारशास्त्र की विषय-वस्तु जीवन-प्रबन्धन पर आधारित है। निष्कर्ष यह है कि हम प्रबन्धन की अवधारणा को जीवन-निर्वाह के साथ-साथ आत्म-कल्याण के लिए भी लागू करें, क्योंकि सफलता प्राप्त करने के लिए मनुष्य चाहे आसमान को भी छू ले, फिर भी आत्मिक-शान्ति के बिना उसकी यह उड़ान अधूरी ही मानी जाएगी। =====< >===== अध्याय 1 : जीवन-प्रबन्धन का पथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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