________________
प्राप्त किए बिना ही पूरा जीवन बीत जाता है । कह सकते हैं कि परिश्रम करने पर भी परिणाम प्राप्त नहीं हो पाता और जीवन निरर्थक ही समाप्त हो जाता है।
|
यह समय है परिश्रम और परिणाम की समीक्षा का, ताकि हम जान सकें कि इतनी वैज्ञानिक प्रगति होने के बावजूद भी हमारा जीवन तनावग्रस्त और उलझनभरा क्यों है। कहीं न कहीं कोई ऐसी भूल हो रही है, जिससे इतनी यथोचित सामग्रियाँ प्राप्त करके भी व्यक्ति का जीवन शान्तिमय नहीं बन
पा रहा ।
वस्तुतः जैसे-जैसे वैज्ञानिक प्रगति हो रही है, वैसे-वैसे व्यक्ति की दमित इच्छाएँ, अपेक्षाएँ और आकांक्षाएँ मुखर होती जा रही हैं। उसका भौतिक पदार्थों के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है। वह कामनाओं और वासनाओं को तृप्त करना चाहता है, जबकि वे और अधिक बढ़ती जा रही हैं। आज संस्कृति अर्थप्रधान और भोगप्रधान बनती जा रही है। व्यक्ति 'अर्थ' एवं 'भोग' का पुरूषार्थ जितना - जितना बढ़ाता है, उसके जीवन में व्यस्तता और तनाव भी उतने - उतने बढ़ते जाते हैं। भ्रमवश वह और अधिक 'अर्थ' एवं 'भोग' का पुरूषार्थ करता है, फलतः उसका तनाव और भी अधिक बढ़ जाता है एवं आनन्द लुप्त हो जाता है । यह अन्तहीन सिलसिला जीवनभर ही गतिशील रहता है। इस चक्रव्यूह में फँसकर वह धर्म और मोक्ष का पुरूषार्थ भी छोड़ देता है तथा इस प्रकार नैतिक और आध्यात्मिक विकास के मार्ग से वंचित रह जाता है।
कई लोग बाहर से तो अस्त-व्यस्त नहीं होते, क्योंकि उनकी जिन्दगी में अधिक भाग-दौड़ नहीं होती और इसीलिए वे शान्तिमय जीवन बिताते हुए दिखते हैं। उनके जीवन की यह विशेषता होती है कि वे जीवन में प्राप्त हुए 'अर्थ' और 'भोग' के साधनों में ही सन्तोष कर लेते हैं और प्रायः उन्हें अधिक चिन्ता और तनाव नहीं रहते, फिर भी ऐसे लोगों के जीवन को प्रबन्धित नहीं कहा जा सकता । कारण यह है कि ये लोग सामान्यतया दुनिया के परिवर्त्तनों से अनभिज्ञ और स्वभाव से आलसी होते हैं, इसीलिए उनकी महत्त्वाकांक्षाएँ दब जाती हैं और उनमें भविष्य की तृष्णाएँ दिखाई नहीं देती । वस्तुतः, उनमें तर्कसंगत विचार और तज्जन्य विवेक की कमी होती है, अतः बाह्य जीवन अस्त-व्यस्त नहीं होते हुए भी उनका तथाकथित शान्तिमय जीवन का स्थायित्व संदेहास्पद होता है। ऐसे लोग विषम परिस्थितियों में अभावग्रस्त होने पर तनाव और अवसाद को भी प्राप्त हो सकते हैं। यह अवस्था भी जीवन का साध्य नहीं है। जैनकथासाहित्य में सेठ शालिभद्र का उदाहरण मिलता है, जो भौतिक दृष्टि से अतिसमृद्ध और अपार ऐश्वर्य के धनी थे। उनका जीवन भोग भोगने और आराम करने में बीत रहा था, किन्तु राजा श्रेणिक से भेंट होने पर उन्हें अपने अप्रबन्धित जीवन का अनुभव हुआ और तभी उन्होंने जीवन को पूर्ण प्रबन्धित करने हेतु आत्म-संयम का मार्ग स्वीकार किया । 218
आज ऐसे भी लोग हैं, जो व्यवस्थित और शान्तिमय तरीके से जीवन जीने के लिए, अनैतिक और असामाजिक साधनों का उपयोग करते हैं। वे लोग अपने दायित्वों को नहीं निभाकर दूसरों पर दायित्व थोपते हैं, अपने अधिकारों का अतिक्रमण कर दूसरों के अधिकारों का शोषण करते हैं,
अध्याय 1: जीवन- प्रबन्धन का पथ
59
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
59
www.jainelibrary.org