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________________ आदेश और निर्देश में अन्तर फेयॉल के अनुसार, आदेश व्यक्ति के लिए होता है, जबकि निर्देश वर्गविशेष या समूहविशेष के लिए होता है। आदेश में लोच का अभाव होता है, जबकि निर्देश लोचपूर्ण होता है। आदेश में किसी प्रकार का परिवर्तन सम्भव नहीं होता, जबकि निर्देश में देश, काल एवं परिस्थिति के आधार पर एक सीमा तक संशोधन या समायोजन किया जा सकता है। किसी अपेक्षा से व्यक्ति के व्यक्तित्व में एकरूपता होती है, अतः उसके लिए आदेश आवश्यक होता है, ताकि उसमें वह अपनी स्वेच्छा को न जोड़ सके। इसके विपरीत, समूह में रुचि - वैचित्र्य और क्षमता- वैचित्र्य होता है, अतः उसके लिए निर्देश आवश्यक होता है, ताकि व्यक्तियों की भिन्न-भिन्न क्षमता और परिस्थिति का आकलन कर उन्हें अलग-अलग निर्देश दिए जा सकें। फेयॉल के अनुसार, (4) आदेश की श्रेणिबद्ध श्रृंखला (Scalar Chain of Command) संस्था के समस्त सदस्य ऊपर से नीचे की ओर एक सीधी रेखा के रूप में संगठित होने चाहिए तथा सभी सदस्यों को चाहिए कि वे अपनी पद- मर्यादा का उल्लंघन नहीं करें। इसका आशय यह है कि सदस्यों की क्रमिक श्रृंखला में से किसी भी स्तर अथवा सदस्य का अनादर न हो जाए, जिससे संस्था की एकता भंग होकर परस्पर अनबन हो । 191 विशिष्ट परिस्थितियों में कार्य के शीघ्र निष्पादन हेतु फेयॉल ने इस सिद्धान्त में लचीलेपन को भी मान्य किया है। उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि आपवादिक परिस्थिति में एक विभाग का कार्यकर्त्ता दूसरे विभाग के कार्यकर्त्ता से सीधे सम्पर्क कर सकता है । ' यह बात जैनधर्म की संघीय व्यवस्था में भी परिलक्षित होती है। जैन संघ में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक आदि पदों की व्यवस्था द्वारा यह बताया गया है कि ये पदवीधारी अपने ऊपर के संघ के पदाधिकारियों के आदेशों के क्रियान्वयन में संलग्न रहें। इस व्यवस्था के अन्तर्गत आदेश को परिवर्तित करने का अधिकार तो नहीं होता, किन्तु देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति को ध्यान में रखकर निर्देश में यथोचित परिवर्तन करके उसे क्रियान्वित किया जा सकता है । इस सम्बन्ध में उत्सर्ग और अपवाद ऐसी दो विधाएँ जैननीतिशास्त्रों में प्रस्तुत की गई । इनके अनुसार, सामान्य परिस्थिति में 'उत्सर्ग' (सामान्य विधि) का पालन करना होता है, किन्तु विशेषं परिस्थिति में 'अपवाद' का सेवन भी किया जा सकता है।' 192 (5) कार्य का विभाजन ( Division of Work) फेयॉल के अनुसार, प्रत्येक कार्य को कार्यांशों में विभाजित करके उन कार्यांशों को योग्य और प्रशिक्षित व्यक्तियों से सम्पन्न कराना चाहिए । इसे सही व्यक्ति को सही कार्य सौंपना (Right Person at the Right Job) भी कहते हैं। इसमें व्यक्ति की दक्षता (Specialization) का लाभ प्राप्त होकर न्यूनतम समय में अधिकतम परिमाण और गुणवत्ता का कार्य सम्पन्न हो जाता है।' 193 53 जहाँ तक जैनसंघ का सम्बन्ध है, इसमें कार्यों के विभाजन की यह व्यवस्था प्राचीनकाल से ही अध्याय 1: जीवन- प्रबन्धन का पथ 53 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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