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________________ रही है। इसमें संघ के प्रशासन का कार्य आचार्य का एवं शिक्षा-दीक्षा का कार्य उपाध्याय का होता है। इसी प्रकार संघ में जो विभिन्न पद निर्धारित किए गए हैं, उनके अपने-अपने दायित्व भी सुनिश्चित किए गए हैं। छेद-सूत्रों में यह भी बताया गया है कि कौन-सा व्यक्ति किस पद का अधिकारी हो सकता है तथा उसके क्या-क्या दायित्व हो सकते हैं।194 (6) अनुशासन (Discipline) - अनुशासन से तात्पर्य है - अपने से उच्च अधिकारी की आज्ञा का पालन करना, नियमों के प्रति निष्ठा रखना तथा सम्बन्धित अधिकारियों के प्रति आदरभाव होना। फेयॉल के अनुसार, “बुरा अनुशासन एक बुराई है, जो प्रायः बुरे नेतृत्व से आती है।” दूसरे शब्दों में, एक अच्छा नेता ही अच्छा अनुशासन कायम कर सकता है। 195 . जहाँ तक अनुशासन का प्रश्न है, जैनसंघ की व्यवस्था अनुशासन के प्रति प्राचीनकाल से ही सजग रही है। जैनसंघ में सदैव आचार्य, उपाध्याय आदि के प्रति निष्ठा रखने और उनके आदेशों के सम्यक् परिपालन हेतु बल दिया गया है।196 आचार्य, उपाध्याय आदि का अनुशासन कैसा हो, इसकी चर्चा विभिन्न जैनग्रंथों में विस्तार से की गई है। (7) सर्वहित के लिए वैयक्तिक स्वार्थ की गौणता (Subordination of Individual Interest to General Interest) – एक कुशल प्रबन्धक का कर्तव्य होना चाहिए कि वह सामूहिक हितों एवं व्यक्तिगत स्वार्थ में उचित सामंजस्य एवं समन्वय रखे। यदि इन दोनों में टकराव होने लगे, तो वह सामूहिक हितों को प्राथमिकता दे।197 उसे चाहिए कि वह न्याय, दृढ़ता तथा सर्तकता के साथ कार्य करे, इसीलिए जैनदर्शन की साधना-पद्धति में आत्महित के साथ संघहित को भी प्राथमिकता दी गई है। वस्तुतः, जैनदर्शन की यह मान्यता है कि परार्थ के लिए स्वार्थ का विर्सजन करना चाहिए, किन्तु नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की अवहेलना करके परार्थ करना उचित नहीं है। 198 (8) पारिश्रमिक और पारितोषिक (Remuneration) - संस्था के प्रत्येक व्यक्ति को सन्तोषप्रद पारिश्रमिक और पारितोषिक दिया जाना चाहिए, जिससे कर्त्तव्यों के प्रति उपेक्षाभाव और सम्बन्धों में तनाव उत्पन्न न हो। कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित करने के लिए वित्तीय के साथ-साथ गैरवित्तीय सहयोग, जैसे – चिकित्सा सुविधा, गृह-सुविधा, कार्यालयीन-सुविधा आदि भी अपेक्षित हैं और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। 199 इस सम्बन्ध में आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट निर्देश दिया है कि व्यक्ति का शोषण नहीं करना चाहिए, अपितु उसके कार्य का सम्यक् पारिश्रमिक दिया जाना चाहिए। इससे वह अत्यन्त सन्तुष्ट होकर पहले से भी अधिक कार्य करता है। इस प्रकार, स्वामी-सेवक सम्बन्ध में आत्मीयता, कार्य-निष्पादन में कुशलता और उत्पादक क्षमता में अभिवृद्धि होती है।200 54 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 54 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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