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प्रत्येक सामाजिक पहलू के प्रबन्धन हेतु उपयोगी माना गया है और इसीलिए जैनधर्मदर्शन की सामाजिक जीवन-प्रणाली में ये सिद्धान्त स्पष्टतया समझाए गए हैं।
विस्तारभय से प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में इन सिद्धान्तों का अतिविस्तृत विवेचन नहीं किया जा रहा है, फिर भी, यह मानना आवश्यक है कि जीवन के आर्थिक, पारिवारिक, कौटुम्बिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, राष्ट्रीय, धार्मिक आदि समस्त सामाजिक पक्ष, जिनमें व्यक्ति को व्यक्ति के साथ जीना होता है, उनमें कहीं न कहीं इन सिद्धान्तों का प्रयोग करना आवश्यक है, ताकि सामाजिक जीवन में व्याप्त संघर्षों का अभाव होकर तनाव-मुक्त एवं समरसतापूर्ण जीवनशैली का सम्यक् विकास हो सके। आगे, आधुनिक एवं जैनदृष्टि को आधार बनाकर इनका सक्षिप्त वर्णन किया जा रहा है - (1) कर्तव्य और अधिकार का सम्बन्ध (Responsibilities & Authority are Related) - कर्त्तव्य और अधिकार हमेशा सहगामी होते हैं। किसी भी व्यक्ति को कार्य सौंपते हुए कार्य के कुशल निष्पादन हेतु आवश्यक अधिकार भी सौंपे जाने चाहिए और साथ ही जिस व्यक्ति को अधिकार मिलते हैं, उसे अपने कर्तव्यों का बोध भी होना चाहिए।185
जैनधर्मसंघ में भी आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणि, गणधर एवं गणावच्छेदक - ये सात पदों की व्यवस्था है, जिन पर आसीन करने के साथ-साथ साधक को उचित कर्त्तव्य भी सौंपे जाते हैं। यह व्यवस्था वस्तुतः अधिकार के साथ कर्तव्यों के समन्वय की द्योतक है।185 (2) आदेश की एकता (Unity of Command) – किसी व्यक्ति को मिलने वाले समस्त आदेश एक अधिकारी से ही प्रेषित होने चाहिए, जिससे वह व्यक्ति एक ही अधिकारी के प्रति पूर्ण उत्तरदायी बन सके। आदेश की एकता न होने पर अनुशासन भंग होने की आशंका बनी रहती है तथा दोहरा शासन होने से वातावरण भी दुविधामय हो जाता है।
जैनसंघ में भी सामान्यतया आदेश की एकता का सिद्धान्त ही अपनाया जाता रहा है, फिर भी कभी-कभी अपवादस्वरूप अन्य उच्च पदवीधारियों से सीधे प्रेषित आदेशों का पालन भी सम्बन्धित व्यक्ति को करना होता है। इतना अवश्य है कि आचार्य का आदेश ही अन्तिम माना जाता है। 188 (3) निर्देश की एकता (Unity of Direction) – किसी उद्देश्य से सम्बन्धित क्रियाकलापों को सम्पन्न करने के लिए कोई वर्ग या समूह उत्तरदायी होता है और उस वर्गविशेष के कार्यों के कुशलतापूर्वक संचालन हेतु एक ही निर्देशक होना चाहिए।189
इसी प्रकार, जैनधर्म पर आधारित संघीय व्यवस्था में सामान्यतया निर्देश की एकता का सिद्धान्त ही मान्य है, फिर भी परिस्थितिविशेष में अन्य उच्च पदस्थों के द्वारा सीधे दिए जाने वाले निर्देशों का पालन भी सम्बन्धित वर्ग या समूह को करना होता है। इतना सुनिश्चित है कि आचार्य का निर्देश ही सर्वोच्च होता है।190
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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