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________________ अभिवृद्धि में सहयोग देना इत्यादि। इस प्रकार, प्रबन्धन केवल व्यक्ति या संस्था विशेष के प्रति ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण मानवता के प्रति उत्तरदायी होता है। पीटर एफ. ड्रकर के अनुसार, प्रबन्धन का उत्तरदायित्व उपक्रम के प्रति भी होता है, जो समाज का एक अंग है और समाज के प्रति भी होता है, जिसका अंग कोई उपक्रमविशेष है। 184 जैनआचारमीमांसा पर आधारित जन-जन में प्रचलित 'जिओ और जीने दो' (Live & let live) की उक्ति भी इसी बात को परिलक्षित करती है। यह मनुष्य के विचार, वाणी और व्यवहार में दृष्टिगोचर होना आवश्यक है, क्योंकि यह उसे समाज में जीने की सम्यक् कला सिखाती है। 1.4.11 प्रबन्धन के सिद्धान्त (Principles of Management) ___ सामाजिक जीवन की आम समस्या है - वैचारिक, वाचिक और व्यावहारिक संघर्षों का होना। ये संघर्ष जब क्रोध, कलह और क्लेश का रूप ले लेते हैं, तो पारस्परिक व्यवहार में उदारता का अभाव होकर कार्य के प्रति उत्साह में कमी आ जाती है, जिससे सामाजिक परिवेश असामान्य (Abnormal) हो जाता है। दुष्परिणाम यह निकलता है कि सभी अपने-अपने वैयक्तिक स्वार्थ को साधने में लग जाते हैं। पद, प्रतिष्ठा और पैसा मुख्य बन जाते हैं, जबकि कार्य का सम्यक् नियोजन एवं क्रियान्वयन गौण हो जाता है। फलतः सामूहिक प्रयास का सार्थक फल प्राप्त नहीं हो पाता। इस विसंगति से बचने के लिए व्यक्ति के समक्ष सामाजिक जीवन के प्रबन्धन-सिद्धान्तों का होना अत्यावश्यक है। आधुनिक युग में प्रबन्धन-सिद्धान्तों के पिता सर हेनरी फेयॉल (Henry Feyol) ने प्रशासन के 14 सिद्धान्त प्रतिपादित किए हैं, जो इस प्रकार हैं - 1) कर्त्तव्य और अधिकार का सम्बन्ध 8) पारिश्रमिक और पारितोषिक 2) आदेश की एकता 9) केन्द्रीकरण 3) निर्देश की एकता 10) व्यवस्था 4) आदेश की श्रेणिबद्ध श्रृंखला 11) समता 5) कार्य का विभाजन 12) व्यक्ति के कार्यकाल का स्थायित्व 6) अनुशासन 13) पहल 7) सर्वहित के लिए वैयक्तिक स्वार्थ की गौणता 14) सहकारिता और टीम भावना जैनधर्मदर्शन में भी प्राचीनकाल से ही प्रबन्धन के उपर्युक्त सिद्धान्त किसी न किसी रूप में प्रचलित रहे हैं। वस्तुतः, ये सिद्धान्त नवीन नहीं, अपितु लौकिक एवं नैतिक जीवन-मूल्यों पर आधारित प्राचीन सिद्धान्त हैं। यदि तुलनात्मक रूप से देखा जाए, तो यह प्रतीत होता है कि जैनदर्शन और फेयॉल के सिद्धान्तों में कहीं न कहीं एकरूपता है। यद्यपि देश, काल एवं परिस्थिति के आधार पर इनमें थोड़ी भिन्नता भी दिखाई देती है, फिर भी वह अत्यल्प है। इतना अवश्य है कि सर हेनरी फेयॉल ने इनकी उपयोगिता सिर्फ उद्योगों एवं व्यवसायों तक ही सीमित मानी है, जबकि जैनदर्शन में इन्हें 51 अध्याय 1: जीवन-प्रबन्धन का पथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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