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________________ आधुनिक प्रबन्धनशास्त्रियों ने प्रबन्धन की प्रकृति को समझाने के लिए निम्न तथ्य बताए हैं 1) प्रबन्धन एक कला है (Management is an Art)| 2) प्रबन्धन एक विज्ञान है (Management is a Science)। 3) प्रबन्धन एक प्रणाली है (Management is a System)। 4) प्रबन्धन एक सामाजिक उत्तरदायित्व है (Management is a Social Responsibility) 182 1.4.10 प्रबन्धन के सामाजिक उत्तरदायित्व (Social Responsibilities of Management) जीवन प्रबन्धन के सन्दर्भ में देखें, तो प्रबन्धन का उत्तरदायित्व संकुचित नहीं, बल्कि व्यापक है, क्योंकि यह सिर्फ स्वार्थ-सिद्धि का उपाय नहीं है। स्वयं का पोषण करना और दूसरों का शोषण करना, यह प्रबन्धन का उद्देश्य नहीं है। प्रबन्धन तो सेवा, सहयोग और सहिष्णुता व ता की नीति पर आधारित व्यवस्था है, जिसकी उपयोगिता सार्वजनीन है। वस्तुतः, जैनदर्शन की शिक्षा भी यही है कि प्राणियों का जीवन एक-दूसरे के सहयोग से ही चलता है, अतः व्यक्ति को सहयोग का आदान-प्रदान करते हुए अपना जीवन जीना चाहिए - परस्परोपग्रहो जीवानाम् ।183 मेरी दृष्टि में, जीवन-प्रबन्धन के अन्तर्गत जिन प्रमुख सामाजिक उत्तरदायित्वों का पालन करना चाहिए, वे इस प्रकार हैं - (1) आर्थिक उत्तरदायित्व - राष्ट्र, सरकार, स्वामी, कर्मचारी, ग्राहक, पर्यावरण आदि सभी के हितों के मध्य उचित सामंजस्य स्थापित करना एवं संस्था के हितों के लिए निजस्वार्थ को गौण करना। (2) पारिवारिक उत्तरदायित्व – परिवार के प्रत्येक सदस्य के प्रति उचित व्यवहार करना। बड़ों के प्रति आदर, छोटों के प्रति वात्सल्य और समान वय वालों के प्रति प्रेम एवं स्नेह रखना। जीवन में स्वहित की अपेक्षा पारिवारिक हितों को मुख्यता देना। (3) अन्य सामाजिक उत्तरदायित्व - कुटुम्ब, अड़ोसी-पड़ोसी, मित्र एवं अन्य परिचितों के प्रति मैत्रीभाव अर्थात् अद्वेष-बुद्धि रखना। (4) राष्ट्रीय उत्तरदायित्व – राष्ट्रीय सम्पत्ति एवं संसाधनों का समुचित संप्रयोग और संरक्षण करना। (5) शासकीय उत्तरदायित्व - शासकीय कानूनों का समुचित पालन करना, करों का उचित भुगतान करना, तस्करी, जमाखोरी, कालाबाजारी, मुनाफाखोरी एवं भ्रष्टाचारी नहीं करना इत्यादि । (6) धार्मिक (नैतिक) उत्तरदायित्व - धर्म के सही मर्म को समझना, उसकी शिक्षाओं को विचार और व्यवहार में उतारना, धर्म का उचित प्रचार-प्रसार करना, धार्मिक-सम्पत्ति के संरक्षण और 50 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 50 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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