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________________ ༢༢ ༢ ༢༢ ༢ ༣༢ ༢༢ ༢ ཏྟཱ。 8 शुभाशसा क ع ع ع ع ع ع ع ع ع ع ع ع ع ع ع ع ع ع ع ع خ خ خ خ خ خ شیخ کی परम पूज्य मधुरभाषी मुनिराज श्रीपीयूषसागरजी म.सा. मनुष्य चेतन है, पदार्थ अचेतन है। चेतन की समस्या का समाधान अचेतन नहीं कर सकता वह समस्या के समाधान में निमित्त बन सकता है, उपादान नहीं। मनुष्य को सामाजिक, पारिवारिक, राजनीतिक, शैक्षणिक, व्यावसायिक, धार्मिक आदि अन्य-अन्य सम्बन्धों का जीवन भी जीना होता है, जिसमें अनेक प्रकार की समस्याएँ होती हैं। वस्तुतः, जितने प्रकार का जीवन वह जीता है, उतने ही प्रकार की समस्याएँ भी रहती हैं। इन सब समस्याओं का समाधान किसी एक सूत्र से किया जाए, यह सम्भव नहीं है। समस्याएँ अनेक हैं, तो उनके समाधान-सूत्र भी अनेक हैं। मानवीय समस्याओं का वर्गीकरण मुख्यतया पाँच प्रकार से किया जा सकता है। ★ मानवीय सम्बन्धों की समस्या ★ नैतिकता की समस्या ★ सामाजिक विषमता की समस्या ★ अशान्ति और तनाव की समस्या ★ आदर्शवाद और यथार्थवाद की समस्या उपरोक्त समस्याओं का जनक आदमी का मस्तिष्क है, यही उलझाता है, यही जटिलता पैदा करता है। आश्चर्य यह है कि जन्म लेने वाली इन समस्याओं की मृत्यु और समाधान भी मानव-मस्तिष्क ही है। अत एव निष्कर्ष यही है कि जब तक मस्तिष्क प्रशिक्षित और परिष्कृत नहीं होता, जब तक चेतना विकसित नहीं होती. तब तक समस्याओं का क्षणिक समाधान भले ही हो जाए लेकिन स्थायी समाधान नहीं हो सकता। स्थायी समाधान के लिए वीतराग-विज्ञान के सम्पोषक श्रमण भगवान् महावीर ने 'विभज्यवाद' का बेजोड़ विकल्प दिया। विभज्यवाद का अर्थ है - हर समस्या को विश्लेषित करके देखो, समस्याओं को मिलाओ मत। बाह्य जीवन से सम्बंधित समस्याओं के निराकरण के लिए सर्वप्रथम आन्तरिक समस्याओं का परिमार्जन कर उनका समाधान करो। जैसे-जैसे आन्तरिक समस्याओं का समाधान होता है, वैसे-वैसे बाह्य जीवन की समस्त समस्याओं को सुलझाने में सुविधा हो जाती है। इक्कीसवीं सदी के क्षितिज पर, भौतिकता के साधन व सामग्रियाँ चरम उत्कर्ष पर हैं। फिर भी मानव का जीवन निराश, उदास और हताश है। ऐसे विकराल समय व स्थिति में मानव की जीवनशैली को अमूल्य उपहार प्रदान करने, प.पू. खरतरगच्छाधिपति स्व. श्रीजिनमहोदयसागरसूरीश्वरजी म.सा. के अविरल, असीम अनुग्रह से, युवामनीषी, पारदर्शी चिन्तक, विशुद्ध संयमाराधक मुनिप्रवर श्रीमनीषसागरजी ने जिनवाणी की दरिया में गहरी डुबकी लगाकर व्यावहारिक जीवन-प्रबन्धन से هی هی هی هی هی هی هی هی هی هی هی هی عی ميمي عيم अभिनन्दन के स्वर 111 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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