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________________ (3) संसाधन (Resourcing) प्रबन्धन का तीसरा महत्त्वपूर्ण कार्य है – संसाधन। इसका आशय योग्य सामग्रियों द्वारा योग्य कार्य को निष्पन्न करना है। जीवन प्रबन्धन के सन्दर्भ में संसाधन दो प्रकार के होते हैं – क) मानव (Human) और ख) गैर-मानव (Non-Human)। मानव संसाधन के अन्तर्गत कार्य के सम्यक निष्पादन में सहायक मनुष्यों का समावेश होता है, जबकि गैर-मानव संसाधन में भूखण्ड, सम्पत्ति, उपकरण, पूंजी, माल, हाथी, घोड़े आदि चराचर सामग्रियों का समावेश होता है। __सामान्यतया गैर-मानव संसाधनों को ही एकमात्र संसाधन माना जाता है, किन्तु यह मान्यता सही नहीं है। वस्तुतः, मानव संसाधन ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संसाधन है, जो अपनी क्षमताओं का प्रयोग करके गैर-मानव संसाधनों का सम्यक् उपयोग करता है। अतः किसी अपेक्षा से प्रबन्धन व्यक्तियों का विकास ही है, न कि वस्तुओं का निर्देशन, क्योंकि यदि व्यक्ति का प्रबन्धन हो जाए, तो भौतिक सामग्रियों का प्रबन्धन स्वतः हो जाएगा। आधुनिक प्रबन्धन-प्रणाली में संसाधन को मानव संसाधन (Staffing) के रूप में ही माना गया है तथा गैरमानव संसाधन को कच्चे माल एवं बुनियादी ढाँचे (Infrastructure) के रूप में स्वीकार किया गया है।168 संसाधन (Resourcing) के अन्तर्गत निम्न कार्यों का समावेश होता है - 1) योग्य संसाधनों की आवश्यकता सम्बन्धी योजना बनाना। 2) योग्य संसाधनों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना। 3) योग्यतम संसाधनों का चयन करना। 4) चयनित संसाधनों को कार्यों में प्रयुक्त करना। 5) मानव संसाधनों को आर्थिक, सामाजिक एवं नैतिक संरक्षण देकर अभिप्रेरित करना और भौतिक संसाधनों का सम्यक् रख-रखाव करना। 6) समय-समय पर मानव संसाधनों की क्षमता का परिष्करण एवं परिवर्धन तथा भौतिक संसाधनों की मरम्मत एवं नवीनीकरण करना। जैनदर्शन में संसाधनों का विशिष्ट महत्त्व है और इसमें भी मानव-संसाधनों की श्रेष्ठता निर्विवाद है। यही कारण है कि इसमें साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका को विशेष सम्माननीय स्थान दिया गया है। यहाँ तक कि भगवान् ऋषभदेव के काल में मानव संसाधनों के संरक्षण एवं विकास के उद्देश्य से ही अनेक व्यवस्थाओं का सूत्रपात हुआ, जैसे - राज-व्यवस्था, मंत्रीमण्डल-व्यवस्था, परामर्शमण्डल-व्यवस्था, ग्राम-व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था, विवाह-व्यवस्था, परिवार-व्यवस्था, आजीविका-व्यवस्था (असि, मसि एवं कृषि सम्बन्धी), कला–प्रशिक्षण व्यवस्था, आरक्षक-व्यवस्था, दण्ड-व्यवस्था आदि।169 46 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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