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________________ जैनदर्शन में गैर-मानव संसाधनों का भी यथोचित महत्त्व है। लौकिक जीवन की अपेक्षा से यहाँ कला और शिल्प का निर्देश दिया गया है, तो लोकोत्तर जीवन की अपेक्षा से जिनालय, उपाश्रय, स्थानक, तीर्थ, ग्रन्थ एवं अन्य उपकरणों का भी महत्त्व बताया गया है। (4) निर्देशन (Directing) 170 प्रबन्धन-प्रक्रिया में कुशल संचालन या निर्देशन भी नितान्त आवश्यक है। इसके अन्तर्गत तीन कार्यों का समावेश होता है नेतृत्व (Leadership), अभिप्रेरण ( Motivation) एवं संप्रेषण (Communication)। वस्तुतः, निर्देशन नेतृत्व करने का कार्य है, जिससे नियुक्त किया गया व्यक्ति कुशलतापूर्वक कार्य निष्पन्न कर सके। कुशल- निर्देशक इस प्रकार से व्यक्ति को अभिप्रेरित करता है कि वह पूर्ण उत्साह और आत्मविश्वास के साथ अपनी अधिकतम क्षमता का उपयोग कर सके। इतना ही नहीं, सही निर्देशक अपने लक्ष्य, नीति, कार्यक्रम, नियम आदि के विषय में उचित व्यक्ति के साथ उचित संप्रेषण भी करता है। संप्रेषण के माध्यम से ही कार्य का स्पष्टीकरण, किए गए कार्य का पर्यवेक्षण (Supervision ) तथा कार्य सम्बन्धी परामर्श प्रदान करना सम्भव हो पाता है। किसी ने सच ही कहा है, “Manage-men-t” अर्थात् Manage the men tactfully | 171 जैनदर्शन में भी निर्देशन प्रक्रिया को एक आवश्यक कर्त्तव्य माना गया है। जहाँ तक नेतृत्व का प्रश्न है, व्यवहारसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि श्रमण निर्ग्रन्थों को आचार्य और उपाध्याय के नेतृत्व में ही रहना चाहिए, क्योंकि आचार्य के नेतृत्व में इनकी संयम - समाधि बनी रहती है और उपाध्याय के नेतृत्व में इनका आगमानुसार व्यवस्थित अध्ययन होता है। किन्तु यहाँ केवल दूसरों को ही नहीं, अपितु स्वयं को भी निर्देशित करने की बात कही गई है। उदाहरणस्वरूप, जैनसंघ में आचार्य भगवन्तों को दीपक की उपमा दी जाती है, ,172 क्योंकि ये एक ओर अपनी आत्मशुद्धि हेतु स्वयं ही स्वयं को निर्देश देते हैं, तो दूसरी ओर सारणा ( हितकारी कार्यों में लगाना), वारणा (विपरीत कार्यों से हटाना ), चोयणा (मधुर शब्दों से प्रेरणा देना) एवं पडिचोयणा (बारम्बार प्रेरणा देना) के माध्यम से अपने विशाल शिष्य समुदाय का संचालन भी करते हैं । ' 173 (5) समन्वयन (Coordinating) समन्वय का आशय प्रबन्धन - प्रक्रिया के विभिन्न कार्यों को एक सूत्र में पिरोना है, जिससे वे सभी कार्य मिलकर उद्देश्य की प्राप्ति कर सकें। वास्तव में यह प्रबन्धन का सार तत्त्व है। प्रबन्धन के प्रत्येक कार्य में इसका अंश अवश्य पाया जाता है। इ. एफ. एल. ब्रेच के अनुसार, “किसी समूह के सदस्यों के बीच इस ढंग से कार्य का वितरण करना कि उनमें परस्पर सन्तुलन एवं सहयोग बना रहे तथा यह देखना कि कार्य सद्भावना के साथ सम्पन्न हो जाए, समन्वय कहलाता है |”174 47 Jain Education International अध्याय 1: जीवन- प्रबन्धन का पथ For Personal & Private Use Only 47 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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