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________________ (ग) कार्य का वितरण (Allocation of Task) – सम्बन्धित विभागों या व्यक्तियों की योग्यता, चातुर्य और अनुभव के आधार पर उन्हें कार्य सौंपना ही कार्य का वितरण या आवंटन कहलाता है। यह तीसरा महत्त्वपूर्ण चरण है, जिसमें कार्य की गति और कार्य के प्रति उत्तरदायित्व की भावना बढ़ती है। (घ) अधिकार प्रदान करना (Delegation of Authority) – कर्त्तव्य के वितरण के साथ-साथ सम्बन्धित विभागों या व्यक्तियों को अधिकार प्रदान करना भी आवश्यक है, जिससे वे निर्दिष्ट कार्य को करने या कराने में समर्थ हो सकें। (ङ) समन्वयात्मक सम्बन्धों की रचना (Formation of Coordinated Interrelationships) - उद्देश्य और कार्य की एकता के लिए समन्वय अत्यन्त आवश्यक है। समन्वय के लिए व्यक्तिविशेष को अन्य विभागों एवं व्यक्तियों से परिचित होना आवश्यक है। उसे इसका भान होना चाहिए कि मुझे किससे मार्गदर्शन लेना है, किससे सहयोग लेना है और किसे सहयोग देना है इत्यादि। इससे परस्पर सहयोगात्मक और स्वस्थ वातावरण की रचना होती है तथा सामूहिक प्रयासों की सफलता सुनिश्चित होती है। (च) मूल्यांकन (Evaluation) – संगठन संरचना की प्रभावशीलता व कार्यकुशलता का मूल्यांकन करना अन्तिम और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चरण है, जिससे बदलते हुए परिवेश में संगठन-प्रक्रिया में वांछनीय परिवर्तन या संशोधन किया जा सके। जैनदर्शन में प्राचीनकाल से ही संगठन या व्यवस्था की प्रक्रिया बताई गई है। भगवान् ऋषभदेवजी ने स्वयं सामाजिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक व्यवस्था की स्थापना की। गृहस्थावस्था में रहते हुए उन्होंने शिक्षा-व्यवस्था, परिवार-व्यवस्था, समाज-व्यवस्था, राज्य-व्यवस्था आदि का प्रवर्तन किया। तीर्थकर अवस्था में रहते हुए उन्होंने श्रमण, श्रमणी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना की तथा ऐसी सुव्यवस्था प्रदान की कि ये मोक्षमार्ग में अग्रसर हो सकें। संगठन सम्बन्धी जिन कार्यों का वर्णन ऊपर किया गया है, उनका प्रचलन जैन-परम्परा में प्राचीन काल से ही रहा है। उदाहरणस्वरूप, राज्याभिषेक के पश्चात् ऋषभदेव ने तत्कालीन संगठनात्मक संरचना का मूल्यांकन करते हुए उसमें वांछनीय संशोधन किया। इसके अन्तर्गत उन्होंने राज्य की सुव्यवस्था और विकास के लिए विविध कार्यों का निर्धारण किया। तत्पश्चात् सजातीय कार्यों का विभागीकरण करते हुए सुरक्षा-व्यवस्था हेतु आरक्षक-दल, राजकीय-व्यवस्था में परामर्श हेतु मंत्रीमण्डल, अतिरिक्त सलाह के लिए परामर्शमण्डल और सामान्य कार्यों के लिए कर्मचारी-वर्ग की स्थापना की। उसके बाद उन्होंने इन विभागों हेत योग्य व्यक्ति या व्यक्तियों का चनाव कर कार्यों का वितरण किया, इन्हें क्रमशः उग्र, भोग, राजन्य एवं क्षत्रिय नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। इतना ही नहीं, कार्यों के सम्यक् निर्वहन के लिए इन्हें उचित अधिकार-प्रदान किए और पारस्परिक समन्वयात्मक सम्बन्धों की स्थापना भी की।67 45 अध्याय 1: जीवन-प्रबन्धन का पथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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