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________________ 7. योगशतक की स्वोपज्ञवृत्ति – मूल ग्रन्थकार हरिभद्रसूरि ने स्वयं इस पर स्वोपज्ञवृत्ति लिखकर मूल विषय का विस्तृत विवेचन किया है। मूल ग्रन्थ में मित्रादि आठ दृष्टियों की तुलना पातंजल योगदर्शन (2-29) में आए यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि- आठ योगांगों के साथ की गई है, उसी प्रकार श्लोक क्रमांक सोलह की वृत्ति में खेद, उद्वेग, क्षेप, उत्थान, भ्रान्ति, अन्यमुद्रोग और आसंग की चर्चा है।126 इसी श्लोक की वृत्ति के अन्तर्गत अद्वेष, जिज्ञासा, शुश्रूषा, श्रवण, बोध-मीमांसा, शुद्ध प्रतिपत्ति और प्रवृत्ति का वर्णन तुलना सहित किया गया है। इस तुलना में क्रमशः पतंजलि, भास्कर बन्धु और दत्त के मन्तव्य भी दृष्टिगोचर होते हैं।128 8. योगविंशिका - एक हजार चार सौ चंवालीस ग्रन्थों के प्रणेता आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा रचित विंशति-विंशिका-प्रकरण, जिसमें विविध विषयों पर बीस-बीस श्लोकों द्वारा अद्भुत निरूपण किया गया है, उस ग्रन्थ का ही योग-विषयक एक प्रकरण 'गागर में सागर' की उक्ति को सार्थक करता है। इस ग्रन्थ को जोग-विहाणवीसिया के नाम से भी जाना जाता है। 9. जोगविहाणवीसिया (योगविधानविंशिका) - आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा रचित 'वीसवीसिया' बीस विभागों में विभाजित है। उन विभागों के सत्रहवें विभाग का नाम 'जोगविहाणवीसिया' है। इसमें योग-विषयक बीस गाथाएं हैं। पहली गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि जो प्रवृत्ति मुक्ति की ओर ले जाए, वह योग है। दूसरी गाथा में योग के पांच प्रकार बताए गए हैं- 1. स्थान 2. ऊर्ण 3. अर्थ 4. आलम्बन और 5 अनालम्बन ।29 इसमें प्रथम दो 'कर्मयोग' हैं और बाकी तीन 'ज्ञानयोग' हैं। प्रत्येक के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थैर्य और सिद्धि- इस प्रकार चार-चार भेद हैं। इसमें योग के अस्सी भेदों के विवेचन के साथ ही अनुकम्पा, निर्वेद, संवेग और प्रशम का वर्णन है। तीर्थ-रक्षा हेतु शुद्धिकरण और शुद्ध आचरण के चार प्रकारों का उल्लेख किया गया 126 इन खेद आदि के स्पष्टीकरण के लिए षोडशक, षो. 14, श्लोक 2 - 11. षोडशक, षो. 16, श्लोक 14. - 128 समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ. 86. 129 इन पांचों का षोडशक, षो. 13, 4 में निर्देश है. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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