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________________ योगदृष्टि का निरूपण है, तत्पश्चात् इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग के भेदों का वर्णन किया गया है। सामर्थ्ययोग को भी दो भागों में बांटा गया है1. धर्मसंन्यास और 2. योगसंन्यास। इसके अनन्तर 1. मित्रा 2. तारा 3. बला 4. दीप्रा 5. स्थिरा 6. कान्ता 7. प्रभा और 8. परा- इन आठ दृष्टियों का विषय विशद रूप से निरूपित है, साथ ही पातंजलि के अष्टांगयोग से इन आठ योगदृष्टियों की तुलना भी की गई है। इन आठ दृष्टियों को समझाने के लिए तृणादि की अग्नि के उदाहरण प्रस्तुत किए गए। इसमें चौदह गुणस्थानों का वर्णन भी किया गया है, साथ ही गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तयोगी तथा निष्पन्नयोगी के स्वरूप के बारे में भी समझाया गया है। कर्मयुक्त (संसारी) जीव की अचरमावर्त्तकालीन अवस्था को 'ओघदृष्टि' और चरमावर्त्तकालीन अवस्था को योगदृष्टि कहा है। आठ दृष्टियों में से प्रथम की चार दृष्टियां आंशिक मिथ्यात्व से युक्त होने के कारण उन्हें अवेद्यसंवेद्य पद वाली तथा अस्थिर एवं सदोष कहा है, शेष चार दृष्टियां वेद्यसंवेद्य पद वाली एवं निर्दोष हैं। प्रथम चार दृष्टियों में मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। पांचवी-छठवीं दृष्टि में पांचवे से सांतवे गुणस्थान होते हैं। सातवीं दृष्टि में आठवां और नौवां गुणस्थान होता है। अन्तिम दृष्टि में शेष सभी गुणस्थानों का, अर्थात् दसवें से लेकर चौदहवें गुणस्थानों तक का समावेश इस ग्रन्थ पर अनेक मुनि-भगवंतों ने टीका भी लिखी है तथा इसका गुजराती भाषान्तर भी किया है, जो इस प्रकार है1. श्री देवविजयजी गणिवर (केशरसूरिश्वरजी मसा.) 2. पू. आ. भुवनभानुसूरिश्वरजी मसा. व्याख्यानात्मक-शैली में भाषान्तर । 3. पू. युगभूषणविजयजी मसा.। पू. गणिवर्य मुक्तिदर्शनविजयजी द्वारा लिखित 'आठ दृष्टिना अजवाला'। 5. श्री राजशेखरविजय मसा. द्वारा भावानुवाद वाला विवेचन। 6. पण्डितजी श्री डॉ. भगवानदास मनसुखजी का किया हुआ विवेचन । 7. पण्डितजी धीरजलाल डाह्यालाल कृत गुजराती भाषान्तर। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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