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________________ 59 5. योगशतक (जोगसयग) - आचार्य हरिभद्रसूरि संस्कृत भाषा के महान् सिद्धहस्त लेखक तो थे ही, साथ ही प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में भी उनका पाण्डित्य प्रखर था, मानो दोनों भाषा (संस्कृत और प्राकृत) पर उनका प्रभुत्व एक तराजू के दोनों पलड़ों के समान था। प्राकृत भाषा में रचित योगविषयक ग्रन्थों में योगशतक नामक ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है। यह एक सौ एक प्राकृत गाथाओं की रचना है। इसमें विविध विषयों का वर्णन है। इसके प्रारम्भ में योग को दो भागों में विभाजित किया गया है 1. निश्चय-योग। 2. व्यवहार-योग। फिर, इन दोनों योगों का स्वरूप बताया गया है। तदनन्तर, निश्चय-योग से फल, सिद्धि, आत्मा और कर्म का सम्बन्ध, योग के अधिकारी के रूप में अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि और सम्यकचारित्र- इन तीनों का स्वरूप, मैत्री आदि चार भावनाओं का वर्णन किया गया है। फिर, सर्वसम्पत्कारी भिक्षा, योगजनित लब्धियों और उनके फल की चर्चा है। इसमें कायिक-प्रवृत्ति की तुलना में मानसिक-भावना को श्रेष्ठ बताया गया है, साथ ही इस श्रेष्ठता को मण्डूक-चूर्ण और उसकी भस्म तथा मिट्टी का घड़ा और सुवर्ण-कलश के उदाहरण से समझाया गया है। इसमें काल-ज्ञान का उपाय भी वर्णित है। उपर्युक्त सभी विषय ध्यान से सम्बन्धित हैं। जिस तरह दूध से शकर को अलग नहीं कर सकते, उसी तरह इन विषयों से ध्यान को भी अलग नहीं किया जा सकता। इस ग्रन्थ के अन्तर्गत ध्यान शब्द के स्थान पर योग शब्द का प्रयोग भी किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ पर हरिभद्र की स्वोपज्ञ-व्याख्या है, जिसका परिमाण सात सौ पचास श्लोक है। 6. योगदृष्टिसमुच्चय - प्रस्तुत ग्रन्थ दो सौ छब्बीस पद्यों में लिखा गया है। इसमें योग को अलग-अलग दृष्टियों से समझाया गया है।125 प्रथम तो ओघदृष्टि तथा 125 (क) उपर्युक्त आठ दृष्टियों के विषय का आलेखन न्यायाचार्य श्री यशोविजयगणि ने द्वात्रिंशद्-द्वात्रिंशिका की 21-24 में तथा 'आठ योगनी सज्झाय' में किया है। (ख) स्व. मोतीचन्द गि. कपाड़िया की इस विषय को लेकर गुजराती में 'जैन दृष्टिए योग' नामक किताब की दूसरी आवृत्ति श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, विक्रम संवत् 2010 में प्रकाशित हुई। (ग) न्यायविशारद, न्यायतीर्थ मुनिश्री न्यायविजयजी ने इस विषय का निरूपण 'अध्यात्म-तत्त्वालोक' में किया। . For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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