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________________ इन पांच अनुष्ठानों के विवेचन के साथ ही इसमें सम्यक्त्व की प्राप्ति में साधनाभूत यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का विवेचन भी बहुत ही स्पष्ट रूप से किया गया है। इसमें विरति, मोक्ष, आत्मा की परिभाषा, कार्य की सिद्धि में काल, स्वभाव आदि पंचकारण-समवाय की भूमिका का वर्णन, महेश्वरादि एवं पुरुषाद्वैतवादी के मतों का निरसन, अध्यात्म-भावना, ध्यान, समता और वृत्तिसंक्षेप आदि का विस्तृत विवेचन किया गया है । पतंजलि की सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात -समाधि के सम्बन्ध में गोपेन्द्र 122 और कालातीत 23 की मान्यता का निर्देश तथा सर्वदेव नमस्कार की उदारवृत्ति के सन्दर्भ में चारिसंजीवनी - न्याय का दृष्टान्त दिया गया है। इसमें कालातीत की अनुपलब्ध कृति में से सात अवतरण भी दिए गए हैं। इसमें यह बताया गया है कि योग के अधिकारी कौन हैं और कौन नहीं ? भवाभिनन्दी - जीव ध्यान के अधिकारी नहीं हैं। इसमें चरमावर्त्त में स्थित शुक्लपाक्षिक, भिन्नग्रन्थि और चारित्री जीवों को ही ध्यान का अधिकारी कहा गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ पर आधारित 'सयोगचिन्तामणि' नामक स्वोपज्ञवृत्ति भी हैं, जिसका श्लोक - परिमाण तीन हजार छः सौ बीस है ।' 124 33 में उनका विवेचन किया है। इसके अलावा 26वें पद्य में भी अनुष्ठान से सम्बद्ध प्रीति, भक्ति - वचन और असंग का उन्होंने निर्देश किया है। 122 श्री हरिभद्रसूरि ने अन्य सम्प्रदायों के जिन विद्वानों का मानपूर्वक निर्देश किया है, उनमें से एक यह गोपेन्द्र भी है । इन सांख्ययोगाचार्य के मत के साथ उनका अपना मत मिलता हैऐसा उन्होंने कहा है । हरिभद्रसूरि ने ललितविस्तरा (पृ. 45 आ.) में 'भगवद्गोपेन्द' ऐसे सम्मानसूचक नाम के साथ उनका उल्लेख किया है। गोपेन्द्र, अथवा उनकी किसी कृति के बारे में किसी अजैन विद्वान् ने निर्देश किया हो, तो ज्ञात नहीं,, केवल मूलकृति गुजराती अर्थ (अनुवाद) और विवेचन के साथ 'बुद्धिसागर जैन ज्ञानमन्दिर' ने 'सुखसागरजी ग्रन्थमाला' के तृतीय प्रकाशन के रूप में सन् 1950 में प्रकाशित की है। आजकल यह मूल कृति अंग्रेजी अनुवाद आदि के साथ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदाबाद की ओर से छपी है। 123 ये परस्पर विरोधी बातों का समन्वय करते हैं । इस दृष्टि से इस क्षेत्र में ये हरिभद्रसूरि के पुरोगामी कहे जा सकते हैं। 'समदर्शी आचार्य हरिभद्र' (पृ. 80 ) में ये शैव, पाशुपत या अवधूत - परम्परा के होंगे- ऐसी कल्पना की गई है। 124 प्रो. मणिलाल एन. द्विवेदी ने योगबिन्दु का गुजराती अनुवाद किया था और वह वडोदरा से सन् 1899 में प्रकाशित किया था। योगबिन्दु एवं उसकी अज्ञातकर्त्तृकवृत्ति आदि के बारे में विशेष जानकारी के लिए लेखक के 'श्री हरिभद्रसूरि' तथा 'जैन संस्कृत - साहित्य नो इतिहास' ग्रन्थ देखिए. 58 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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