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________________ विक्रम की बारहवीं शताब्दी में लिखी गई थी।19 यह कृति संस्कृत भाषा में रची हुई है। मुश्किल से इसके चार सौ तेईस पद्य मिले, वे भी अपूर्ण हैं। आद्य-पद्य में आत्मतत्त्व का निरूपण किया गया है। इस ग्रन्थ की मौलिक विशेषता यह है कि इस ग्रन्थ के अन्तर्गत सर्व-दर्शनों का समन्वय देखा जा सकता है। - श्लोक क्रमांक 392 से 394 में मृत्यु-सूचक चिह्नों का वर्णन है। प्रस्तुत कृति में हरिभद्रीय अन्य कृतियों के कतिपय पद्य प्राप्त होते हैं, जिनका निर्देश मुनिश्री पुण्यविजयजी ने किया है, जैसा कि बांसठवे श्लोक ललित–विस्तरा में आता है। षोडशक-प्रकरण में अद्वेषादि आठ अंगों का जैसा उल्लेख है, वैसा ही इसके श्लोक क्रमांक पैंतीस में भी है। इच्छायोग, शास्त्रयोग तथा सामर्थ्ययोग का जो निरूपण ब्रह्मसिद्धि-समुच्चय के श्लोक क्रमांक 188 से 191 में है, वह ललित–विस्तरा और योगदृष्टि-समुच्चय में भी है। इसमें श्लोक क्रमांक चौपन में भी अपुनर्बन्धक का उल्लेख है, वह इन दोनों में भी है। इच्छा, शास्त्र और सामर्थ्य-योग के वर्णन के पश्चात् उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी का वर्णन है। इन श्रेणियों पर ध्यान करने वाला साधक ही चढ़ सकता है। इस प्रकार, इसमें ध्यान का संक्षेप में कथन करके हरिभद्रसूरि ने यह भी कहा कि ब्रह्मादि की प्राप्ति भी योग के द्वारा सम्भव है। 4. योगबिन्दु - योगमार्ग समर्थक आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा रचित यह कृति अध्यात्म-मार्ग पर प्रकाश डालती है।120 मूल ग्रन्थ संस्कृत भाषा के अनुष्टुप छन्द के पांच सौ सत्ताईस पद्यों (श्लोकों) से युक्त है। इसमें विविध विषयों के वर्णन के साथ ही योग का महत्त्व, योग की पूर्व–पीठिका के रूप में 'पूर्वसेवा' शब्द द्वारा पांच अनुष्ठानों का वर्णन है। विषानुष्ठान, गरलानुष्ठान, अननुष्ठान, तद्हेतु-अनुष्ठान और अमृतानुष्ठान" - 118 यह नाम मुनिश्री पुण्यविजयजी ने दिया है। यह कृति प्रकाशित है, यह बात जैन-साहित्य का __ बृहद् इतिहास द्वारा उद्धृत, भाग- 4, पृ. 237. 119 वही,, भाग, 04, पृ. 237. 120 यह कृति अज्ञातकर्तृकवृत्ति के साथ 'जैनधर्म प्रसारक-सभा' ने सन् 1911 में प्रकाशित की __ है। इसका सम्पादन डॉ एल0 सुआली ने किया है। इसके पश्चात् यही कृति 'जैनग्रन्थ प्रसारक-सभा' ने सन 1940 में प्रकाशित की है। 121 वैयाकरण विनयविजयगणि ने 'श्रीपाल राजानोरास' शुरू किया था, परन्तु विक्रम संवत् 1738 में उनका अवसान होने पर अपूर्ण रहा था। न्यायाचार्य श्री यशोविजय ने तृतीय खण्ड की पांचवी ढाल, अथवा उसके अमुक अंश से आगे का भाग पूर्ण किया है। उन्होंने चतुर्थ खण्ड की सातवीं ढाल के 29वें पद्य में इन विषादि पांच अनुष्ठानों का उल्लेख करके पद्य 30 से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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