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है। यह कृति आध्यात्मिक-विकास के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्राथमिक स्तर का विवेचन न करके आगे के स्तरों का भी निर्देश करती है। 9. षोडशक-प्रकरण - यथा नाम तथा गुण की कहावत इस ग्रन्थ के नाम पर भी लागू होती है। इसमें सोलह-सोलह पद्यों के सोलह प्रकरण हैं। प्रस्तुत कृति में बाल, मध्यम-बुद्धि एवं बुध आदि के वर्गीकरण के माध्यम से अनेक विषयों पर प्रकाश डाला गया है। योग-साधना में बाधक खेद, उद्वेगादि आठ चित्त-दोषों का इसके चौदहवें प्रकरण में वर्णन मिलता है, वैसे ही सोलहवें प्रकरण के अन्तर्गत इन दोषों के विरोधी पक्ष अद्वेषादि का वर्णन किया गया है। पन्द्रहवें प्रकरण में ध्यान का सुस्पष्ट वर्णन तथा ध्यान के दो प्रकारों - 1. सालम्बन-ध्यान और
2. निरालम्बन-ध्यान का उल्लेख है। इन दोनों ध्यानों की प्राप्ति अवश्यमेव होती है। इस प्रकार, इसमें ध्यान (योग) का विस्तार से विवेचन है। 10. पंचसूत्र की वृत्ति - प्रस्तुत ग्रन्थ पर हरिभद्र की वृत्ति है। इसे पापप्रतिघात एवं गुणबीजाधान, साधुधर्म की परिभावना, प्रव्रज्याग्रहणविधि, प्रव्रज्यापरिपालन तथा प्रव्रज्याफल- इन पांच विषयों में विभाजित किया गया है। इनमें योग-विषयक कुछ उल्लेख मिलते हैं।
इसमें सुकृत का सेवन, दुष्कृत का परित्याग, मंगलरूप चार शरण, श्रावक एवं श्रमण की चरणसत्तरी-करणसत्तरी का वर्णन, सम्यग्दर्शनादि की आराधना के माध्यम से ध्यान तथा योग का कुछ विवरण उपलब्ध है।
इस प्रकार, हरिभद्रसूरि का ध्यान तथा योगविषयक साहित्य गहन, किन्तु सरल है। यह व्यक्ति की साधना में सहायक है। वैसे भी कहा गया है- "संसार में अनादिकाल से परिभ्रमण करते हुए जीव के दुःखों का सर्वथा नाश करके, शाश्वत आनन्द की दशा प्राप्त कराने वाला, अर्थात् परमात्मा बनाने वाला साधन 'योग' या 'ध्यान' ही है।"130 हरिभद्र के ध्यानशतक-टीका की विशेषताएं - यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'झाणज्झयण' (ध्यानशतक) पर संस्कृत भाषा में एक टीका लिखी है, जो वर्तमान में भी उपलब्ध है। यह टीका ध्यानशतक की सबसे प्रथम टीका है, जो
• 130 प्रस्तुत वाक्य 'जैनसाहित्य का बृहद् इतिहास', भाग- 4 से उद्धृत है, पृ. 227.
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