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________________ भक्तिमय अनुष्ठान के प्रणिपातसूत्र, दण्डकसूत्र, नामस्तव, श्रुतस्तव, सिद्धस्तव इत्यादि मूल पाठों की टीका है। यह एक हजार पांच सो पैंतालीस श्लोक - परिमाण है । इसके अतिरिक्त, आचार्य हरिभद्र ने चरितकाव्य भी लिखे हैं, इनमें 'मुनिपतिचरित्र' तथा 'यशोधराचरित्र' प्रसिद्ध हैं। इनमें हरिभद्र ने लोकमंगल के स्वरूप को प्रकाशित किया है। एक कथाकार के रूप में कथा - ग्रन्थों के प्रणेता बनकर हरिभद्र कथाओं के संग्रहकार के रूप में उपस्थित हुए हैं। उन्होंने 'वीरङ्गदकथा' और 'समराइच्चकहा' जैसे कथा - ग्रन्थों की रचना भी की है। इनके अतिरिक्त, विधि-विधान के क्षेत्र में 'प्रतिष्ठाकल्प' का रचनाकार भी हरिभद्र को ही माना जाता है। इसी प्रकार, खगोल- भूगोल के क्षेत्र में आपने 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका' लिखी है। इसी क्रम से आचार्य हरिभद्रसूरि ने ओघनियुक्तिवृत्ति तथा पिण्डनिर्युक्तिवृत्ति लिखकर जैन - आचार को स्पष्ट किया है। ‘धर्मलाभसिद्धि' ग्रन्थ में श्रमणों एवं मुनियों द्वारा प्रदत्त आशीर्वाद का स्वरूप समझाया गया है। परलोक-सम्बन्धी भ्रान्तियों से भ्रमित लोगों को भ्रम - रहित बनाने में प्रस्तुत ग्रन्थ 'परलोक सिद्धि' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा है । इसी क्रम में श्रावकधर्म का बोध देने हेतु आपने श्रावकप्रज्ञप्ति, श्रावकधर्मतन्त्र जैसे ग्रन्थों की रचना कर श्रावधर्म की मर्यादा को स्पष्ट किया है । रत्नत्रय के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराने हेतु आपने ‘संबोध–प्रकरण’, ‘सम्यक्त्व - सप्ततिका', 'धूर्त्ताख्यान' आदि ग्रन्थों का सृजन किया । इस प्रकार, आचार्य हरिभद्रसूरि ने अगाध ज्ञान - र न - राशि को विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। उनके ग्रन्थों में कोई भी विषय अछूता नहीं रहा । निर्ष्वषतः, इतना ही कहना उचित होगा कि आचार्य हरिभद्रसूरि एक समन्वय दृष्टि के पुरोधा थे । जैन - दर्शन एवं अन्य दर्शनों के क्षेत्र में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। निम्नांकित पंक्तियां उनकी उदार दृष्टि को उजागर करती हैं न मे पक्षपातो वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्स, तस्य कार्य परिग्रहः । । 115 प्रस्तुत पंक्तियां उनकी समन्वयशीलता एवं समरसता को प्रकट करती हैं। 115 लोकतत्त्व निर्णय, श्लोक 1 / 38. 54 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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