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सम्मत सिद्धान्तों को भी प्रामाणिक रूप से विवेचित किया गया है। नास्तिक-पक्ष को भी आस्तिक - पक्ष में परिवर्तित कर उन्होंने हृदय की विशालता और तटस्थता का परिचय दिया है।
अनेकान्त-जयपताका एवं अनेकान्त - प्रवेश
अनेकान्त - दृष्टि को स्पष्ट करने वाले ग्रन्थों में अनेकान्त-प्रवेश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं गम्भीर कृतियां हैं।
हरिभद्र के उत्तरवर्ती सभी विद्वानों ने अपनी-अपनी रचनाओं में अनेकान्त-जयपताका का उल्लेख करके आचार्य हरिभद्र की कृति को चिरस्मरणीय बना दिया। इनमें यह बताया गया है कि अनेकान्तवाद जैनदर्शन का मौलिक सिद्धान्त है और इसमें सभी दर्शनों का समावेश हो जाता है । 114.
2.
न्यायप्रवेश- वृत्ति सभी भारतीय-दर्शनों में श्रुतज्ञान का महत्त्व ह क्योंकि ज्ञानचक्षु से ही व्यक्ति हित-अहित, सन्मार्ग-उन्मार्ग, उत्थान-पतन, अनुगामी - पुरोगामी तथा हेय - ज्ञेय का ज्ञान कर सकता है। इस वृत्ति के माध्यम से आचार्य हरिभद्र ने स्व-परकल्याण हेतु कुछ मार्गदर्शक सूत्र प्रस्तुत किए हैं, जिसके कारण वे जनमानस के हृदय में अंकित हो गए। यह वृत्ति बौद्धग्रन्थ 'न्यायप्रवेशसूत्रम्' पर आधारित है, जिसके मूल प्रणेता आचार्य दिङ्नाग हैं। इसमें न्याय के पदार्थों का विवेंचन है। इस ग्रन्थ पर अन्य जैनाचार्यों की वृत्तियों के नाम इस प्रकार हैं1. धनेश्वरसूरि के विद्वान् शिष्य पण्डित पार्श्वदेवगण ने इस पर ‘न्यायप्रवेशवृत्तिपञ्जिका' लिखी है।
भुवनभानुसूरिजी लिखित 'न्यायभूमिका' भी न्याय में प्रवेश करने हेतु सरल भाषा में सुबोधक है।
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ललित-विस्तरा
यह एक विशिष्ट एवं उच्च कोटि का भक्तिमय दार्शनिक - ग्र
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114 अनेकान्तजयपताका, पृ. 06.
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भगवान् महावीर की अनेकान्त - जयपताका और
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प्रस्तुत ग्रन्थ आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा विरचित है।
- ग्रन्थ है। इसमें चैत्यवन्दनरूप
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