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________________ इस ग्रन्थ में आस्तिक एवं नास्तिक- दोनों ही दर्शनों की मान्यताओं का निरूपण विस्तार से किया गया है। इस ग्रन्थ के अन्तर्गत न केवल जैन- दर्शनों के विषयों पर ही प्रकाश डाला गया है, अपितु जैनेतर सम्प्रदायों और दर्शनों के वर्णित विषयों का संकलन भी किया गया है, साथ ही यथासम्भव तार्किक आधार पर उनके सभी पक्षों का विस्तार से प्रस्तुतिकरण करके अत्यन्त निष्पक्ष भाव से उनकी समीक्षा भी की गई है। इसके आठ प्रकरण हैं और यह सात सौ श्लोक - परिमाण वाला है । यह संस्कृत भाषा में लिखा गया है। इसमें सभी दर्शनों का विवेचन करके ज्ञानयोग का स्वरूप बताया गया है, साथ ही ज्ञानयोग का फल बताकर ध्यानात्मक - तप को ही परमयोग कहा गया है। आचार्यश्री ने इस छोटे-से ग्रन्थ की कारिकाओं में इतनी विस्तृत ज्ञानराशि संचित करके गागर में सागर भरने जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। दर्शनों का अध्ययन करने वालों के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ अत्यन्त उपादेय है। धर्म-संग्रहणी इस ग्रन्थ में पांच प्रकार के ज्ञानों का विवेचन है तथा चार्वाक - दर्शन का युक्ति पुरस्सर निरसण है । प्रस्तुत ग्रन्थ में सर्वप्रथम धर्म शब्द की व्युत्पत्ति बताकर आत्मा के प्रशस्त लक्ष्य की चर्चा की गई है। इसमें बताया गया है कि जो दुर्गति में जाने से रोके तथा मोक्षमार्ग में आगे बढ़ाए, वही धर्म है। धारेइ दुग्गतीए पडंतमप्पाणगं जतो तेणं । 113 धम्मोत्ति सिवगइतीइ व सततं धारणासमक्खाओ । । ' इस ग्रन्थ की मूल गाथाएं एक हजार तीन सौ छियानवे और टीकाग्रन्थ दस हजार श्लोक - परिमाण हैं । इसके दो भाग हैं। इसमें प्रथम भाग में पांच सौ पैंतालीस गाथाएं और द्वितीय भाग में आठ सौ इक्यावन गाथाएं हैं। 52 षड्दर्शन–समुच्चय प्रस्तुत कृति आचार्य हरिभद्रसूरि की एक अलौकिक कृति है। इस ग्रन्थ के अन्तर्गत भारत के छः प्रमुख दर्शनों का वर्णन है, साथ ही उनके द्वारा 113 धर्मसंग्रहणी Jain Education International - प्रथम भाग, गाथा- 20. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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