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गई है। अष्टम पद में संज्ञाओं के स्वरूप का वर्णन किया गया है, जो मनोवैज्ञानिक-दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। ग्यारहवें पद के आधार पर इसमें स्त्री, पुरुष, नंपुसक के स्वभावगत लक्षणों को बताया गया है।
5. नन्दीवृत्ति - नन्दीटीका की रचना नंदीचूर्णि के आधार पर हुई है।12 इसमें प्रायः उन्हीं विषयों का वर्णन किया गया है जो नन्दीचूर्णि के अन्तर्गत आते हैं।
नन्दीटीका की श्लोक संख्या दो हजार तीन सौ छत्तीस है। मंगलाचरण के पश्चात् तीर्थकरावलिका, गणधरावलिका और स्थविरावलिका का प्रतिपादन किया गया है। इसमें ज्ञान के अध्ययन की योग्यता-अयोग्यता का और फल-प्रक्रिया का विचार करते हुए वृत्तिकार ने केवलज्ञान, केवलदर्शन की परिचर्चा करते हुए ज्ञान के सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है।
6. अनुयोगद्वारवृत्ति - यह अनुयोगवृत्ति अनुयोगचूर्णि की शैली पर लिखी गई है। इस अनुयोगवृत्ति को 'शिष्यहिता' के नाम से जाना जाता है। इसकी रचना के पहले नन्दीवृत्ति का वर्णन हुआ। मंगल आदि विषयों का प्रतिपादन नन्दीवृत्ति में हो जाने के कारण इसमें इसका वर्णन नहीं किया गया- ऐसा टीकाकार का उल्लेख है। प्रमाण आदि को समझने की दृष्टि से अंगुलों का स्वरूप, प्रत्यक्ष-अनुमान, आगम की व्याख्या, ज्ञाननय और क्रियानय आदि का वर्णन इस अनुयोगवृत्ति के महत्त्वपूर्ण विषय
इन आगमिक-टीकाओं के अतिरिक्त हरिभद्र ने अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना भी की है। उनमें से कुछ प्रमुख ग्रन्थ निम्नांकित हैं
शास्त्रवार्ता-समुच्चय - आचार्य हरिभद्र ने अनेक दार्शनिक-ग्रन्थों की भी रचना की है, जिसमें 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' उनकी एक अनूठी दार्शनिक कृति है।
12 चूर्णि और वृत्ति के मूल सूत्रपाठ में कहीं-कहीं थोड़ा-सा अन्तर है। पढमेत्य इंदभूती, बीए पुण होति अग्गिभूतित्ति (चूर्णि) पढमेत्थ इंदभूई बीओ पुण होइ अग्गिभूइत्ति (वृत्ति) - क्रमशः, पृ. 6 और 13.
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