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जिस प्रकार सूत्रकार तथा नियुक्तिकार ने किया, उसी प्रकार मैं भी इन विषयों का मात्र साधारण रूप से स्पष्टीकरण करता हूं। वृत्ति के अन्त में निम्न श्लोक वर्णित है108_
महत्तराया याकिन्या धर्मपुत्रेणचिन्तिता। आचार्यहरिभद्रेण टीकेयं शिष्यबोधिनी।।1।। दशवैकालिके टीका विधाय यत्पुण्यमर्जितं तेन। मात्सर्यदुःखविरहाद्गुणानुरागी भवतु लोकः ।। 2।। - प्रशस्तिश्लोक
3. जीवाभिगम - जीवाभिगम-टीका मूल जीवाभिगमसूत्र के आधार पर निर्मित है। इसमें जीवादि तत्त्वों का विवेचन है। तत्त्वज्ञान अभिलाषियों के लिए यह टीका विशेष उपयोगी है। यह जीवाभिगमसूत्र पर लघुवृत्ति है। 4. प्रज्ञापनाप्रदेश-व्याख्या - प्रज्ञापनासूत्र के पदों पर आधारित प्रस्तुत प्रज्ञापना-टीका संक्षिप्त और सरल है।09 इस टीका के प्रारम्भ में प्रवचन की महिमा बताते हुए कहा गया है
रागादिवध्यपटहः सुरलोक सेतुरानन्ददुंदुभिरसत्कृतिवंचितानाम् । संसारचारकपलायनफालघंटा जैनंवचनस्तदिह को न भजेत विद्वान्।।
मंगल के विशेष विवेचन के लिए आवश्यकटीका का नामोल्लेख किया गया है। 10 इसी सन्दर्भ में भव्य तथा अभव्य का वर्णन करते हुए आचार्य ने वादिमुख्यकृत अभव्यस्वभावसूचक श्लोक भी उद्धृत किए हैं।'' इसमें प्रज्ञापनासूत्र की विविध विषयवस्तु पर भरपूर प्रकाश डाला गया है। यह टीका सरल-सटीक है और इसमें विषयों का विस्तृत विवेचन किया गया है। साधारण बुद्धिवाले जनसमुदाय को जीव-अजीव से सम्बन्धित अनेक सिद्धान्तों का ज्ञान सहज ही प्राप्त हो जाए, इसलिए यह टीका लिखी
108 (क) ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् 1928, पृ. 286.
(ख) दशवैकालिक हरिभद्रवृत्ति - प्रशस्तिश्लोक. 109 (क) पूर्वभाग - ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् 1947
(ख) उत्तरभाग - जैन-पुस्तक प्रचारक संस्था, सूर्यपुर, सन् 1949. 110 (क) पूर्वभाग – ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् 1947. __ (ख) उत्तरभाग – जैन-पुस्तक प्रचारक संस्था, सूर्यपुर, सन् 1949. 11 सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य यल्लोकबान्धव तवापिरिवलान्यभूवन्।
तन्नाद्भुतं खगकुलोष्विह तामसेषु सूर्यांशवो मधुकरीचरणावदाताः ।। - वही, पृ. 04.
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