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सहायक बनती हैं। आगमों के भावी टीकाकारों के लिए हरिभद्र की ये टीकाएं आधारस्तम्भ तथा मार्गदर्शक रही हैं।
1. आवश्यक-टीका - प्रस्तुत टीका की रचना आवश्यकनियुक्ति की गाथाओं को आधार बनाकर की गई है। नियुक्ति-गाथाओं का विस्तार अवश्य है, किन्तु आवश्यकचूर्णि का अनुसरण नहीं है। इस टीका के अन्तर्गत सामायिकादि पदों का सविस्तार विवेचन है
और इसलिए विस्तार से समझने वाले जिज्ञासुओं के लिए यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। टीकाकार ने टीका की पूर्णाहुति के प्रसंग में जिनभट्ट, जिनदत्त, याकिनी-महत्तरा आदि का वर्णन करते हुए अपने-आप को मंदबुद्धिवाला कहकर परिचय दिया है। यह टीका बाईस हजार श्लोक-परिमाण वाली है।106
2. दशवैकालिक-टीका - प्रस्तुत टीका भी दशवैकालिकनियुक्ति की गाथाओं के आधार पर रची गई है। इसका नाम 'शिष्यबोधिनीवृत्ति' है।107 इसे बृहवृत्ति के नाम से भी जाना जाता है। दशवैकालिकसूत्र के अध्ययन में स्वाध्यायकाल की बाध्यता नहीं है, अतः वह वैकालिक है। चूंकि इस सूत्र में दस अध्याय हैं, इसलिए इसका नाम दशवैकालिक है। इस वृत्ति की रचना का लक्ष्य परिभाषित करने के बाद हरिभद्र ने दशवैकालिक के कर्ता शय्यंभव आचार्य के सम्पूर्ण जीवन-प्रसंग का वर्णन किया, तत्पश्चात् इसके अन्तर्गत निर्जरा के बारह भेदों का सांगोपांग विवेचन है, साथ ही ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार की बहुत ही सूक्ष्म व्याख्या की गई है। इसमें अठारह सहस्र शीलांगों का वर्णन, श्रमणधर्म की दुर्लभता, भाषा-विवेक, व्रतषट्क, कायषट्क आदि अठारह पापस्थानों, प्रणिधि-समाधि के चारों प्रकार और भिक्षु के स्वरूप पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इस प्रकार, दस अध्ययनों की विषय-वस्तु को सुस्पष्ट करने के बाद चूलिकाओं का आख्यान करते हुए टीकाकार ने यह उल्लेख किया है कि धर्म के रति-अरतिजनक कारण विविधचर्या आदि विषय का स्पष्टीकरण
106 द्वाविंशति सहस्राणि, प्रत्येकाक्षरगणनया (संख्या)। अनुष्टुप्छन्दसा मानमस्या उद्देशतः कृतम् ।।
- उत्तरभाग (उत्तरार्द्ध), जैन-पुस्तक प्रचारक संस्था, सूर्यपुर, पृ. 865. 107 (क) देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई, सन् 1918.
(ख) समयसुन्दरकृत टीकासहित भीमसी माणेक, बम्बई, सन् 1900.
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