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वर्त्तमान युग में मनुष्य तनाव से ग्रस्त है। तनाव का उद्भव संकल्प - विकल्पों से होता है। संकल्प - विकल्प मनोजन्य अवस्थाएँ हैं । वे मन की भाग-दौड़ की सूचक हैं। जब तक चंचल मन संकल्प - विकल्पों में उलझा हुआ है और चाह एवं चिन्ता से युक्त है, तब तक वह तनावग्रस्त है। तनावों से मुक्ति के लिए चित्त या मन की चंचलताओं को समाप्त करना आवश्यक होता है, इसी कारण योग-साधना का लक्ष्य चित्तवृत्ति-निरोध माना गया है।
चित्त या मन की चंचलता की परिसमाप्ति ध्यान के माध्यम से ही संभव है, इसीलिए कहा गया है कि चित्त की स्थिरता ही ध्यान है ।
कहा भी गया है
प्रस्तावना
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जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं ।
झाणज्झयण, गाथा- 2
चित्तवृत्ति के निरोध के लिए योग और ध्यान की साधना की परमावश्यकता है । आज विश्व में ध्यान के प्रति आकर्षण बढ़ता जा रहा है, क्योंकि मानव तनावग्रस्त होता जा रहा है। परिणामतः, आज अनेक प्रकार की ध्यान-पद्धतियाँ अस्तित्व में आई हैं।
जैन-परम्परा में ध्यान का विशेष रूप से महत्त्व रहा हुआ है, क्योंकि वह चित्तवृत्ति की समाधि को ही अपनी साधना का लक्ष्य मानती है।
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'इसिभासियाइ - सूत्र' में कहा गया है - जैसे शरीर में सिर की प्रधानता है, उसी प्रकार साधना में ध्यान की प्रधानता है ।
वर्त्तमान युग में ध्यान पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है और प्रयोग में भी लाया जा रहा है। जैन - परम्परा में भी ध्यान को लेकर विभिन्न आलेखादि लिखे गए हैं, फिर भी ध्यान - संबंधी मूल ग्रन्थों को टटोलने का प्रयत्न कम ही हुआ है । जैन - परम्परा में ध्यान के सम्बन्ध में आगम के पश्चात् यदि कोई ग्रन्थ उपलब्ध होता है, तो वह 'ध्यानाध्ययन' या 'ध्यानशतक' है। यह ग्रन्थ जिनभद्रगणि
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