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क्षमाश्रमण के द्वारा प्राकृत भाषा में विरचित है। इसका रचनाकाल छठवीं शताब्दी है। इस पर सबसे पहले जो टीका लिखी गई है, वह आचार्य हरिभद्रसूरि के द्वारा आठवीं शताब्दी में लिखी गई है। मेरी जानकारी में इस विषय पर कोई शोध-कार्य नहीं हुआ था, अतः मैंने अपने शोध का विषय 'जिनभद्रगणिकृत ध्यानशतक की हरिभद्रीयवृत्ति : एक तुलनात्मक अध्ययन' निश्चित किया।
जैसा कि मैंने प्रारंभ में उल्लेख किया है कि वर्तमान युग की प्रमुख समस्याओं में से एक समस्या 'मानव का तनावग्रस्त होना' है और तनावों से मुक्ति का मार्ग ध्यान के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। ध्यान के माध्यम से ही चित्त को निर्विकल्प बनाया जा सकता है और यह चित्त की निर्विकल्पता ही तनावों से मुक्ति का एकमात्र उपाय है।
सिद्धान्ततः, इस सम्बन्ध में भी कोई मतभेद नहीं है कि ध्यान चित्त को निर्विकल्प बनाकर उसे तनाव से मुक्त करता है। मानव-जाति को तनाव से मुक्त करने के लिए जो अनेक उपाय सुझाए गए हैं, उनमें ध्यान एक प्रमुख उपाय है, किन्तु ध्यान की साधना किस प्रकार हो और उससे चित्त या मन को किस प्रकार निर्विकल्प बनाया जाए - यह पक्ष सदैव ही गवेषणा का विषय रहा है।
प्राचीनकाल से आज तक विभिन्न परम्पराओं एवं ध्यान-साधन की विभिन्न पद्धतियों को ध्यान में रखकर उसके प्रयोगात्मक पक्ष को स्पष्ट करने के प्रयत्न होते रहे हैं और इसके परिणाम स्वरूप अनेक प्रकार की ध्यान-पद्धतियाँ -स्तित्व में आई हैं और तत्सम्बन्धी साहित्य का सर्जन हुआ है। जहाँ तक जैन-परम्परा का प्रश्न है, उसमें ध्यान के स्वरूप, लक्षण, आलंबन आदि को लेकर आगम काल से ही बहुत कुछ लिखा गया है। आगमों में 'ठाणांगसुत्तं' में इस सम्बन्ध में संक्षिप्त चर्चा उपलब्ध है। उसके पश्चात्, इस विषय पर विस्तृत विवेचन की दृष्टि से जिनभद्रगणि ने ध्यानाध्ययन या ध्यानशतक नामक इस ग्रन्थ की प्राकृत भाषा में रचना की थी, जिस पर आचार्य हरिभद्रसूरि ने सर्वप्रथम संस्कृत भाषा में टीका की रचना की थी।
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