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किया है। यद्यपि उन चक्रों के नाम बौद्ध तान्त्रिक-परम्परा से भिन्न और हिन्दू तान्त्रिक-परम्परा से प्रभावित लगते हैं।
सिंहतिलकसूरि की विशेषता यह है कि उन्होंने इन षट्चक्रों के स्थान पर नवचक्र की कल्पना की है।206 यद्यपि तान्त्रिक-परम्परा के अनुरुप उन्होंने भी इन चक्रों का स्थान शरीर में ही माना है। उनके अनुसार आधारचक्र गुदा के मध्यभाग में, स्वाधिष्ठानचक्र लिंग के मूलभाग में, मणिपूरकचक्र नाभि में, अनाहतचक्र हृदय के समीप, विशुद्धिचक्र कण्ठ में, ललनाचक्र तालु के कण्ठकूप के समीप, आज्ञाचक्र कपाल में दोनों भौंहों के बीच, ब्रह्मरन्ध्रचक्रम मूर्धा के समीप और सुषुम्नाचक्र मस्तिष्क के ऊर्ध्वभाग में स्थित है।207
इसी प्रकार उन्होंने चक्रों के दलों का भी उल्लेख किया है, किन्तु विस्तार भय से यहाँ वह चर्चा अपेक्षित नहीं है। इस संबंध में विशेष चर्चा सिंहतिलकसूरि के 'परमेष्ठिविद्यायन्त्रकल्प' में तथा डॉ. सागरमल जैन के 'जैनधर्म और तान्त्रिकसाधना' नामक ग्रन्थ में मिलती है।
आधुनिक युग में 'आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी' ने इन चक्रों को या ध्यानकेन्द्रों को शरीर में स्थिति विभिन्न ग्रन्थियों से जोड़ने का प्रयास किया है तथा प्रेक्षाध्यान के लिए शरीर में स्थित 13 शक्तिकेन्द्रों का भी उल्लेख किया तथा उन केन्द्रों को जागृत करने की प्रक्रिया भी बताई है, किन्तु विस्तारभय से उन सबकी चर्चा भी आवश्यक नहीं लगती है, क्योंकि हमारी शोध का मूल विषय आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा रचित 'ध्यानशतक' और उसकी हरिभद्रीय टीका ही है जो जैन-परम्परा में ध्यानविधि का उल्लेख करने वाला आगमों पर आधारित प्रथम स्वतंत्र ग्रन्थ है। इस पर हरिभद्र की टीका भी प्राचीन ही है। किन्तु इनमें प्राणायाम, षट्चक्र कुण्डलिनी भेदन की कोई चर्चा नहीं है।
206 आधाराख्यं स्वाधिष्ठान मणिपूर्ण महनाहतम्। विशुद्धि-ललना-ऽज्ञा-ब्रह्म-सुषुम्णाख्ययानव।। -परमेष्ठिविद्यायंत्रकल्पम्, श्लोक-5 207 गुदमध्य–लिंगमूले नाभौ हृदि कण्ठ-घण्टिका भाले।
मूर्धन्यूज़ नव षट् कण्ठान्ता पंच भालयुताः ।। - वही, श्लोक -58
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