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________________ होने के कारण हम उस संबंध में विशेष चर्चा नहीं कर पा रहे हैं। श्वेताम्बरपरम्परा में लगभग 17 वीं शती में हुए अवधूत योगी आनंदघन जी महाराज ने अपने स्तवनों में इसकी चर्चा की है और इस साधना को जैन - अध्यात्म से जोड़ने का प्रयत्न किया है। अपने एक पद में वे लिखते हैं कि म्हारो बालूडो संन्यासी देह देवल मठवासी । इडा पिंगला मारंग तजि जोगी, सुखमना धरि आसी । ब्रह्मरंध्र मधि आसणपूरी बाबू अनहद नाद बजासी ।। म्हारो ।। 1 ।। जम नियम आसण जयकारी प्राणायाम अभ्यासी । प्रत्याहार धारणा धारी ध्यान समाधि समासी ।। म्हारो ।। 2।। मूल उत्तर गुण मुद्राधारी परयंकासनचारी । रेचक पूरक कुंभककारी मन इन्द्री जयकारी ।। म्हारो ।। 3 ।। थिरता जोग जुगति अनुकारी आपो आपविचारी । आतम परमातम अनुसारी सीझे काज सवारी || म्हारो || 4 || 442 इस प्रकार मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञाचक्र इन 7 चक्रों की चर्चा भी हिन्दू तान्त्रिक साधना पद्धति के प्रभाव से जैन - परम्परा में आई है । हमारे शोध - ग्रन्थ जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा प्रणीत 'ध्यानशतक' में इसकी कोई चर्चा नहीं मिलती हैं इनके पश्चात् 8 वीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्र, 11वीं शताब्दी के आचार्य शुभचन्द्र और 12 वीं शताब्दी के आचार्य हेमचन्द्र ने भी इन चक्रों की कोई चर्चा नहीं की है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि जैन - परम्परा में ध्यान का लक्ष्य मात्र आत्मविशुद्धि होने से कुण्डलिनी जागरण, षट्चक्रभेदन आदि की सामान्यतया कोई चर्चा नहीं हुई । जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया सर्वप्रथम आचार्य विबुधचन्द्र के शिष्य सिंहतिलकसूरि ने 'परमेष्ठिविद्यायंत्रकल्प' में 13 वीं शताब्दी में चक्रों का उल्लेख Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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