________________
422
इसी क्र.! में, स्थानकवासी-परम्परा के आचार्य शिवमुनिजी ने आत्मध्यान का विकास किया। आचार्यश्री ने 'ध्यान एक दिव्य साधना' पुस्तक में कहा है -"ध्यान आध्यात्मिक शक्तियों को विकसित करके मोक्ष पाने का अभ्यास है। शुद्ध अवस्था को प्राप्त करना, स्वयं को जान लेना, अन्तर के सभी रहस्यों को उद्घाटित कर लेना ध्यान का लक्ष्य है। 155 आचार्य शिवमुनि द्वारा लिखित 'ध्यानपथ' पुस्तक में ध्यान की पृष्ठभूमि, ध्यान का क्रियात्मक-स्वरुप तथा उपलब्धि, ध्यान सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ, ध्यानसाधना के सहयोगी शिविर, योगासन आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इस आत्म-ध्यान की पद्धति में मूलतः विपश्यना और जैनधर्म की साधना का समन्वय देखा जाता है। इसी प्रकार, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक-परम्परा में मुनिश्री ललितप्रभसागरजी, मुनिश्री चन्द्रप्रभसागरजी ने सम्बोधि ध्यान-विधि का विकास किया है। उन्होंने बहुत ही सरल तरीके से ध्यान-विधि को प्रस्तुत किया है। उन्होंने कहा -"ध्यान का मूल अर्थ है, साक्षीभाव का प्रादुर्भाव होना। व्यक्ति हर कृत्य में साक्षी और दृष्टाभाव में लौट आए, तो तन-मन प्रतिक्रियान्वित नहीं होगा। 157
साधक को गीत और गाली -दोनों में साक्षीरुप (समभाव में) रहना है। इनसे परे होकर अपने-आप का अवलोकन करना है। 158 ध्यान में लीन होने के लिए सबसे पहले राग-द्वेषादि प्रवृत्तियों से दूर रहना होगा। ध्यान एक ओर जहां सतत उत्पन्न होने वाले बुरे विचारों से मुक्ति दिलाएगा तो दूसरी ओर वह जीवन में निर्विकल्प-स्थिति की प्राप्ति कराएगा।
मुनिश्री ने सम्बोधि-ध्यान-विधि के संबंध में ध्यान की जीवन्त-प्रक्रिया, ध्यान -विज्ञान आदि पुस्तकें लिखीं। इन पुस्तकों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि यह विधि भी बौद्ध-विपश्यना, जैनप्रेक्षा एवं पातंजल योग-साधना का ही एक
15 ध्यान एक दिव्य साधना। - आचार्य शिवमुनि, पृ. 32 156 'ध्यान पथ' पुस्तक से उद्धृत 157 प्रस्तुत संदर्भ 'ध्यान-योग' – महोपाध्याय ललितप्रभसागर, पुस्तक से उद्धृत, पृ.33 158 ध्यान : साधना और सिद्धि – चन्द्रप्रभसागर, पृ. 110
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org