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________________ 421 मूलतः वह प्राचीन (प्रागैतिहासिक) युग से चली आ रही जैन साधना-पद्धति है। मानव-सभ्यता के आदि प्रवर्तक भगवान् ऋषभदेव, बाहुबलि, चक्रवर्ती भरत की साधना में प्रेक्षा के ही तत्त्व थे।152 मुनि किशनलालजी ने 'प्रेक्षाध्यान' (यौगिक क्रियाएँ) नामक पुस्तक में शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक-विकास के लिए करीब तेरह क्रियाओं का संकलन किया है, साथ ही स्वभाव–परिष्कार के लिए मेरुदण्ड की आठ क्रियाओं पर सचित्र प्रकाश डाला है।153 __वर्तमान में आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा प्रतिपादित 'प्रेक्षाध्यान' पद्धति का विकास दिन-ब-दिन होता जा रहा है। साधक अन्तःकरण से इस विधि का प्रयोग कर रहा है, क्योंकि इसमें प्रेक्षा, विपश्यना के साथ-साथ हठयोग और आधुनिक मनोवैज्ञानिक-दृष्टि का समन्वय भी देखा जाता है। इसी प्रेक्षा-ध्यान-पद्धति को आधार मानते हुए आचार्य नानालालजी ने समीक्षण ध्यान-विधि का विकास किया। आचार्य नानेश ने 'समीक्षण ध्यान साधना' पुस्तक में अपनी अनुभूतियों के आधार पर बताया है कि 'समीक्षण ध्यान', अर्थात् स्वयं के द्वारा स्वयं का अवलोकन करते हुए आत्मा के शुद्ध स्वरुप (कर्मविहीन मुक्त अवस्था) को प्राप्त कर सकते हैं। इसी मार्ग को अपनाकर हम अपनी दूषित वृत्तियों का परिमार्जन करते हुए समता की ऊँचाईयों पर पहुँच सकते हैं। 154 समीक्षण वह दर्पण है, जो न केवल हमारी बाह्य-आकृति दिखाती है, अपितु हमारे आन्तरिक-भद्देपन को भी मिटाती है। दूसरे शब्दों में, इस ध्यान-विधि में कषायों और राग-द्वेष की ग्रन्थियों को खोलने का प्रयत्न देखा जाता है। ‘समीक्षण ध्यान : एक मनोविज्ञान' पुस्तक में शान्तिमुनि ने आचार्य नानेश के समीक्षण-ध्यान के सन्दर्भ में दिए गए तेरह प्रवचनों का संकलन किया है। 152 प्रेक्षा : एक परिचय - मुनि किशनलाल, पृ.2 153 प्रेक्षाध्यान यौगिक क्रियाएँ – मुनि किशनलाल, विषयानुक्रम, पृ. 8-60 154 समीक्षण ध्यान साधना - आचार्य श्री नानेश, पुस्तक से उद्धृत, पृ.7 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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