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________________ 21 जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का सम्बन्ध गुजरात से रहा होगा। ग्रन्थकार की गृहस्थ-पर्याय चौदह वर्ष, श्रमण-पर्याय तीस वर्ष और युगप्रधान-पर्याय साठ वर्ष की थी। ग्रन्थकार कुल एक सौ चार वर्ष की आयुष्य पूर्ण कर देवलोक पधारे। इनके नाम के पश्चात् क्षमाश्रमण विशेषण लगाया जाता है। क्षमाश्रमण, वाचनाचार्य, वाचक आदि शब्द एक ही अर्थ के द्योतक हैं।42 शिष्यहिता नामक बृहद्वृत्ति के रचयिता आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने इन्हें 'क्षमाश्रमण' कहकर इनका गुणगान करते हुए कहा है कि ये आवश्यकभाष्यरूपी अमृत के सागर एवं गुणरत्नाकर थे, साथ ही "जिनभद्र क्षमाश्रमण व्याख्यातारः' कहकर उनके प्रति विशेष आदर एवं सम्मान के भाव प्रदर्शित किए हैं एवं व्याख्याकार आचार्यों में उनको उत्कृष्ट बताया है। आचार्य सिद्धसेनगणि ने जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनेकानेक वैदुष्यपूर्ण कार्यों का संकेत करते हुए उन्हें युगप्रधान, अनुयोगधर दर्शनज्ञानोपयोग के मार्गदर्शक, क्षमाश्रमणों में निधानभूत आदि विविध प्रकार के आदरसूचक विशेषणों के साथ श्रद्धाभाव प्रकट किया है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ऐसे महान् व्यक्तित्व के धनी थे। " ध्यानशतक (सं. - श्रीमद्विजयकीर्तियशसूरि) के ग्रन्थकार के परिचय के सन्दर्भ से उद्धृत, पृ. 44. 42 पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने इन शब्दों की मीमांसा इस प्रकार की हैप्रारम्भ में 'वाचक' शब्द शास्त्रविशारद के लिए विशेष प्रचलित था, परन्तु जब वाचकों में क्षमाश्रमण की संख्या बढती गई, तब 'क्षमाश्रमण' शब्द भी वाचक के पर्याय के रूप में प्रसिद्ध हो गया, अथवा 'क्षमाश्रमण' शब्द आवश्यकसूत्र में सामान्य गुरु के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है, अतः सम्भव है कि शिष्य विद्यागुरु को क्षमाश्रमण के नाम से सम्बोधित करते रहें हों, इसलिए यह स्वाभाविक है कि 'क्षमाश्रमण' 'वाचक' का पर्याय बन जाए। जैन-समाज में जब वादियों की प्रतिष्ठा स्थापित हुई, शास्त्र-वैशारद्य के कारण वाचकों का ही अधिकतर भाग ‘वादी' नाम से विख्यात हुआ होगा, अतः कालांतर में “वादी' का भी 'वाचक' ही पर्यायवाची बन जाना स्वाभाविक है। सिद्धसेन जैसे शास्त्रविशारद विद्वान् अपने को 'दिवाकर' कहलाते होंगे, अथवा उनके साथियों ने उन्हें 'दिवाकर' की पदवी दी होगी, इसलिए 'वाचक' के पर्याय में 'दिवाकर' को भी स्थान मिल गया। आचार्य जिनभद्र का युग क्षमाश्रमणों का युग रहा होगा, अतः सम्भव है कि उनके बाद के लेखकों ने उनके लिए . वाचनाचार्य के स्थान पर क्षमाश्रमण पद का उल्लेख किया हो। - गणधरवाद, प्रस्तावना, पृ. 31. 43 आवश्यक प्रतिनिबद्धगंभीरभाष्य, पीयूषजन्मजलधिर्गुणरत्नराशिः। ख्यातः क्षमाश्रमणतागुणतः क्षितौ यः, सोऽयंगणिर्विजयते जिनभद्रनामा।। - शिष्यहिता, मंगलाचरण, पद्य 2. " शब्दानुशासन, सूत्र 39. 45 जीतकल्पचूर्णि, गाथा 510. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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