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मूल ग्रन्थकार का कृतित्व - आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के जीवनवृत्त के सन्दर्भ में विस्तार से जानकारी न मिलने के बावजूद भी उनके कृतित्व एवं वैदुष्य का साक्षात्कार उनके द्वारा विरचित ग्रन्थों से हो जाता है, अर्थात् उनकी वैदुष्यपूर्ण प्रतिभा उनकी कृतियों में सर्वत्र प्रतिबिम्बित हुई है।
जिनभद्रगणि आगमों के प्रति पूर्ण समर्पित थे। आगम-परम्परा दीर्घकालीन बनकर ज्ञान-पिपासुओं के हृदय में स्थित रहे, इसी लक्ष्य से उन्होंने भाष्य की रचना की। नियुक्तियों के बाद भाष्यों की रचना हुई है। नियुक्तियां संकेतात्मक भाषा में रची जाती हैं। इसका मुख्य उद्देश्य पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करना होता है। नियुक्तियों में अर्थ की स्पष्टता नहीं होती है, अतः आगम के गहन रहस्य को समझने के लिए अर्थ सहज, सुबोध तथा अधिक स्पष्ट हो- इस हेतु भाष्यों की रचना का क्रम बना है। नियुक्तियों के समान ही भाष्य भी पद्यबद्ध प्राकृतभाषा में लिखे जाते हैं।
भाष्य-ग्रन्थ - आगम-साहित्य जैनधर्म की निधि है। मूल ग्रन्थ के रहस्य को उद्घाटित करना तो केवलीगम्य ही है, लेकिन यह भी सत्य है कि जब तक किसी ग्रन्थ की प्रामाणिक-व्याख्या का सूक्ष्म निरीक्षण नहीं किया जाता, तब तक उस ग्रन्थ में रही हुई अनेक महत्त्वपूर्ण बातों से हम अनभिज्ञ रह जाते हैं। तत्त्व-जिज्ञासुओं के लिए ग्रन्थ के गूढ़ रहस्य को सरलता से प्रतिपादित किया जा सके, इस हेतु क्रमशः नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं की रचना होती है। नियुक्तियों के अर्थ सूक्ष्म तथा दुर्गम्य, अस्पष्ट होने से उसे सरल, सुगम एवं स्पष्ट बनाने हेतु इन्हीं नियुक्तियों के आधार पर भाष्यों की रचना हुई, लेकिन कुछ भाष्यों की रचना मूलसूत्रों के आधार पर भी हुई थी। आगम-ग्रन्थों पर आधारित भाष्यों की सूची निम्नांकित है1. आवश्यक 2. दशवैकालिक 3. उत्तराध्ययन 4. बृहत्कल्प 5. पंचकल्प 6. व्यवहार 7. निशीथं 8. जीतकल्प 9. ओघनिर्यक्ति तथा 10. पिण्डनियुक्ति । आगम-साहित्य में मुख्य रूप से दो भाष्यकारों के नाम ही उपलब्ध हैं, वे हैं- 1. संघदासगणि और 2. जिनभद्रगणि, लेकिन स्वर्गस्थ मुनि पुण्यविजय ने संघदासगणि और जिनभद्रगणि के अलावा दो और भाष्यकारों के होने का अनुमान किया है। उनके मतानुसार, एक तो
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