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उनकी धर्मपत्नी ईश्वरी को वैराग्यास्पद प्रवचनों से प्रतिबोधित करके उनकी चारों सन्तानों को दीक्षित किया। उनके नाम इस प्रकार हैं- नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर। आगामी काल में इन्हीं चारों के नाम से ही अलग-अलग प्रकार की चार परम्पराएं प्रचलित हुई। इसी निवृत्ति-कुल में जिनभद्रगणि हुए होंगे। इसके आधार पर विद्वानों की यह मान्यता है कि यह उल्लेख जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का ही होना चाहिए, क्योंकि उसके आगे वाचक विशेषण उनकी विद्वत्ता को सूचित करता है। इस सन्दर्भ में उनके जीवन से सम्बन्धित और कुछ तथ्य हमारे समक्ष नहीं हैं। ..प्रथम तो यह कि अड,कोट्टक (अकोट) से प्राप्त धातु-प्रतिमाएं मूलतः श्वेताम्बर-परम्पराओं से सम्बन्धित रही हैं और आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण भी श्वेताम्बर-परम्परा के ही आचार्य रहे हुए हैं। दूसरे, अड,कोट्टक से प्राप्त इन धातु-प्रतिमाओं को विद्वानों ने विक्रम की छठवीं-सातवीं शताब्दी की माना है। लगभग यही काल जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का रहा है, क्योंकि उनके द्वारा निर्मित विशेषावश्यकभाष्य की एक ताड़पत्रीय प्रति पर शक संवत् 531 का उल्लेख है, अतः उनके काल और परम्परा की समानता के आधार पर यह माना जा सकता है कि इस ग्रन्थ, अर्थात् झाणज्झयण (ध्यानशतक) का रचनाकाल भी विक्रम की छठवीं शती के अन्त या सातवीं शताब्दी के मध्य तक ही होना चाहिए। इसका एक प्रमाण यह भी है कि इस पर आठवीं शताब्दी में आचार्य हरिभद्र ने संस्कृत भाषा में टीका लिखी है, अतः यह ग्रन्थ इसके पूर्व रचित होना चाहिए। इस ग्रन्थ का रचनाकाल भी छठवीं या सातवीं शताब्दी का माना जा सकता है। दूसरे, विशेषावश्यकभाष्य की एक प्रति के अन्त में ‘रज्जे णु पालणपुरे' होने से यह भी माना जा सकता है कि उस समय पालनपुर एक विस्तृत राज्य रहा होगा और गुजरात के अन्तर्गत होगा, अतः जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का सम्बन्ध गुजरात से स्पष्ट रूप से रहा होगा।
वल्लभी जैन-भण्डार में भी जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा लिखी गई एक प्रति प्राप्त हुई। इससे भी जिनभद्रगणि का वल्लभी से किसी प्रकार का सम्बन्ध अनुमानित होता है। सारांशतः, यहां यह कह सकते हैं कि चाहे अडकोट्टक हो या फिर पालनपुर, अथवा वल्लभी- तीनों ही स्थान गुजरात के अन्तर्गत ही हैं, इसलिए सम्भवतः
40 जैन गुर्जर कविओ, भाग – 2, पृ. 669.
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