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________________ 383 4. योगशतक - 'योगशतक' आचार्य हरिभद्रसूरिकृत योग-सम्बन्धी एक अन्य ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का गाथा परिमाण 101 है। यह प्राकृत भाषा में निबद्ध है। योग सम्बन्धी इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में सर्वप्रथम ग्रन्थकार ने चरमतीर्थपति भगवान् महावीर को नमन कर योग के स्परुप को निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि से प्रतिपादित किया। तत्पश्चात्, गाथा क्रमांक-8 से 32 तक योग के अधिकारी, अपुनर्बन्धक आदि की पहचान, सामायिक, शुद्धि-अशुद्धि और अधिकारी भेद (तीन श्रेणी तथा गृहीसाधक) का वर्णन किया गया है। तदनन्तर, आचार्यश्री ने साधु-सामाचारी, उपदेश, अरति-निवारण, नूतन-अभ्यासी की मुख्य-चर्या, कर्मप्रसंग, दोष-चिन्तन, सच्चिन्तन, आहार, यौगिक-लब्धियाँ, मनोभाव का वैशिष्ट्य, विकासकाल-ज्ञान तथा अनशन-शुद्धि में आत्मपराक्रम आदि विषयों का उल्लेख किया है। 2 चरमगाथा के अन्तिम दो चरणों में 'भवविरहो' शब्द द्वारा दो बातों की सूचना मिलती है। एक तो भव, अर्थात् संसार-चक्र से विरह और दूसरे ग्रन्थकार के अभिधान की सूचना। ज्ञातव्य है कि समदर्शीयाकिनीसूनो हरिभद्र अपने ग्रन्थ की पूर्णता पर अन्तिम गाथा में 'भवविरह' शब्द का प्रयोग अवश्य करते थे। पं. सुखलालजी द्वारा लिखित 'समदर्शी आचार्य हरिभद्र' पुस्तक में योगशतक के परिचय में लिखा गया है कि -"योगशतक में जैनों का धार्मिक-जीवन ही केन्द्रितविषय रहा है। जिस प्रकार वैदिक-परम्परा में ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास - ये चार आश्रम हैं, उसी प्रकार जैन-जीवनशैली में भी आध्यात्मिक विकास की चार क्रमिक भूमिकाएँ रही हैं। जब किसी व्यक्ति की दृष्टि मोक्षाभिमुख होती है, तब वह मोक्ष मार्ग में प्रवेश का अधिकारी होगा - यह जैनत्व की प्रथम 50 निच्छओ इह जोगो .... विहिपडिसेहेसु जह सत्ती।। - योगशतक, 2 से 5 51 अहिगारिणो उपाएण. ........ | |योगशतक, 8 से 32 2 योगशतक, गाथा 33 से 100 तक 3 एसो च्चिय भवविरहो, सिद्धीए सया अविरहोय।। - वही, 101 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003973
Book TitleJinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyashraddhanjanashreeji
PublisherPriyashraddhanjanashreeji
Publication Year2012
Total Pages495
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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